मुंहपत्ति के पचास बोल कोई साधारण वस्तु नहीं है। इस
बोल में तो समस्त जैन शासन और उसके सिद्धान्त संकलित कर लिए गए हैं। क्या रखना है, क्या लेना है और क्या करना है, यह सब बातें इसमें आ जाती हैं।
पहला बोल स्वयं को भूल जाना है! मेरे विचार की कोई कीमत नहीं है! भगवान द्वारा
भाषित अर्थ के आधीन रहकर गणधरों ने सूत्र रचना की है। सब तत्त्व इन सूत्रों में
समाहित हैं। सूत्र और अर्थ जिसे तत्त्व रूप लगें, उसे जगत की दूसरी कोई चीज पसंद नहीं आती।
क्षयोपशम समकित अच्छा है, परन्तु आघात लगने पर वह चला भी जा सकता है। मुंहपत्ति
की प्रतिलेखना करने वाले को समकित का जाना सह्य नहीं होता। अतः वह तीनों मोहनीय को
छोडने की बात करता है। ये तीनों जाते हैं तभी क्षायिक सम्यक्त्व आता है। इसके
सिवाय और कोई सच्चा साथी नहीं है। यह न हो तो हमें भी ये सब क्रियाएं करते हुए
अरुचि उत्पन्न हो सकती है। क्रिया में रस डालने वाला यह समकित ही है।
सामग्री के विद्यमान होने पर भी आप साधुपन अंगीकार
नहीं कर सकते। इसका कारण काम-राग और स्नेह-राग है। इसके कारण आप संतप्त होते हैं, गालियां खाते हैं, लातें भी खाते हैं, तथापि इन राग के पात्रों से नहीं
छूट पाते। इस राग को हटाने के लिए अथवा उसे अच्छे काम में लगाने के लिए सुदेव, सुगुरु, सुधर्म को आदरना है और कुदेव, कुगुरु तथा कुधर्म को छोडना है।
सुदेव आदि को आदरने वाले व्यक्ति को चाहिए- ज्ञान, दर्शन और चारित्र। वह व्यक्ति इन तीनों
की विराधना नहीं करता। इन तीनों को पाने के लिए मन गुप्ति, वचन गुप्ति और काय गुप्ति का पालन करना चाहिए। मनदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड का परिहार करना
चाहिए।
दण्ड परिहार के बिना गुप्ति नहीं आती। गुप्ति वाला
जीव हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगप्सा का त्याग करता है और खराब
विचारों से बचने हेतु कृष्ण, नील, कापोत लेश्या को छोडता है। खराब
विचार लाने वाले रस, ऋद्धि
और साता-गारव को भी वह छोड देता है। तत्पश्चात उसे माया शल्य, निदान शल्य और मिथ्यात्व शल्य सह्य
नहीं होता। तदन्तर वह सब दुर्गुणों के मूल रूप कषायों को त्याग देता है। ऐसा जीव
छहकाय जीवों की रक्षा करने के परिणाम वाला होता है।
मुंहपत्ति की प्रतिलेखना करने वालों के हृदय में सतत
यह सब विचार आने चाहिएं, ये
विचार आते हैं, तभी
वह मोक्ष मार्ग का पथिक है, इसीलिए
मुंहपत्ति में मोक्षमार्ग कहा गया है। मुंहपत्ति के पचास बोल केवल उच्चारण के लिए
नहीं, हृदयंगम करने की चीज
हैं। मुंहपत्ति की प्रतिलेखना के समय यदि ये विचार न आवें तो वे सब संमुच्र्छम
जैसे गिने जाने चाहिए।-आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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