मधुर स्वर में, किसी को खलल न हो ऐसे स्वर से, गम्भीर अर्थपूर्ण स्तवन, पूरी तन्मयता और हृदय के उल्लास से
भगवान के समक्ष गाने चाहिए कि जिससे दोषों का पश्चाताप टपक पडे और भगवान के गुण
आविर्भूत हों। इस प्रकार आत्मा दोषों से पीछे हटती है, यानी जिनालय से बाहर जाने पर वह पुनः पूर्ववत् विषयों
एवं कषायों में अनुरक्त नहीं होती।
हृदय की उमंग के साथ वास्तविक भक्ति तो सचमुच मनुष्य
ही कर सकते हैं। देवतागण विषयों एवं कषायों के अधीन रहते हैं और उस प्रकार की
सामग्री से प्रतिपल घिरे हुए रहते हैं, इसलिए जितनी उच्च कोटि की भक्ति मनुष्य कर सकते हैं, उतनी उच्च कोटि की भक्ति देवता नहीं कर सकते।
देवता लोग अरिहंत परमात्मा के कल्याणक महोत्सव मनाने
आते हैं, तब भी वे मूल रूप में
नहीं आते, बल्कि उत्तरगुण ही आते
हैं। समस्त सामग्री से विलग होकर वास्तविक ‘निसीहि’ से जैसी श्रेष्ठ भक्ति मनुष्य कर सकते हैं, वैसी भक्ति देवता लोग नहींरूप से कर सकते हैं, इसलिए देवता भी धर्म-परायण
मनुष्यों को नमस्कार करते हैं।
गीत तो सभी गाते हैं, परन्तु जिस गीत में हृदय का रस प्रवाहित होता हो, उस गीत का आनंद निराला ही होता है, चाहे गले में मधुरता न भी हो। हृदय
की भक्ति के प्रत्येक शब्द में रस प्रवाहित होता है। जिन-भक्ति करते समय भला
वैराग्य का रस क्यों न प्रवाहित हो? अपूर्व आराधनाओं के कारण जो आत्माएं तीर्थंकरों के रूप में अवतरित हुई, अपूर्व दान देकर निर्ग्रन्थ बनीं, घोर तपस्याएं की और अनेक भयानक
उपसर्गों व परिषहों के समय भी अपने मूल स्वरूप में स्थिर रहकर केवलज्ञान प्राप्त
किया और मुक्ति-पद प्राप्त किया, उन
आत्माओं के समक्ष बैठकर भक्तिपूर्ण हृदय से स्तवन करते हुए आत्मा में कैसी-कैसी
ऊर्मियें उठनी चाहिए, इस
पर तनिक विचार करो।
गृहस्थ जीवन में जाँचकर देखो कि जहां हमारा स्वार्थ
होता है, वहां विनय और भक्ति
करना सबको आता है। संसार के अनुभव का उपयोग करना यहां सीख जाओ तो कार्य हो सकता
है। गुण तो विद्यमान हैं, सिखाने
की आवश्यकता नहीं है, परन्तु
जो प्रवाह पश्चिम की ओर हो रहा है, उसे पूर्व की ओर मोडो। आप में गुण, योग्यता, शक्ति
सबकुछ है, परन्तु वह सब इस ओर
मोडने की आवश्यकता है। बताइए, आप
यह चाहते हैं क्या? क्या
आप चाहते हैं कि आपके गुण आदि का पथ मोडने वाला कोई मिले? यदि कोई प्रवाह को मोड दे तो आपको आनन्द प्राप्त होगा
या नहीं? कल्याण की कामना करने
वाले व्यक्ति को ऐसा आनन्द अवश्य होना चाहिए। आत्म-गुणों का विकास हो गया तो देवता
भी आपको नमस्कार करेंगे ही।-आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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