हमारी यह चेतना अनन्त-अनन्त काल से संसार में परिभ्रमण
कर रही है। यह बात हम अनेकों बार सुन चुके हैं, अनेकों बार पढ चुके हैं। उसकी पुनरावृत्ति शायद इतनी
बार हो चुकी होगी कि उसकी गणना नहीं की जा सकती है। लेकिन, फिर भी लगता है यह बात हमारे अन्तरंग की गहराई में
पैठ नहीं कर पाई है। अगर अन्तरंग में यह बात उतर जाती कि हमारी आत्मा, हमारी चेतना अनन्त-काल से भटक रही
है और इस भटकाव के कारणों को अगर हम समझ लेते तो यह बात भी हमारी समझ में आ जाती
कि इस भटकाव से हम मुक्त हो सकते हैं। समझ ही नहीं लेते फिर मुक्त होने के लिए
हमारा प्रयास प्रारम्भ हो जाता।
लेकिन, विरली ही आत्माएँ होती हैं, जो
इस ओर गतिशील हो पाती हैं। कछ आत्माएँ सामान्य रूप से इस ओर गतिशील होती हैं, कुछ विशेष रूप से इस ओर अपना
प्रयास कर देती हैं।
जीवन का सर्वस्व अज्ञानता के कारण, भ्रान्तियों के कारण हम लुटा देते
हैं। जो सिद्धि देने वाला जीवन-रस है, जो हमें सामर्थ्य दे सकता है, शक्ति
दे सकता है, वही
जीवन-रस जो मन, वचन, काया के योग से हमें सिद्धालय तक
पहुँचा सकने में समर्थ है। वही जीवन-रस हम अज्ञानता के कारण कहाँ गवाँ रहे हैं? अज्ञानता के कारण हम कहाँ चले जाते
हैं? नरक, तिर्यंच तक चले जाते हैं।
अगर ज्ञान है तो उससे हम मन, वचन, काया
के योग से सम्यकत्व का बोध प्राप्त कर सकते हैं। और तो और उस सम्यक बोध से
सिद्धालय तक पहुंचा जा सकता है। बहुत गहराई से चिन्तन का विषय है यह। हम अपने को
बुद्धिजीवी मानते हैं। लेकिन हम यह सोचें कि हमारी बुद्धि का उपयोग हम कहाँ कर रहे
हैं? मुक्ति के द्वार खोलने
में कर रहे हैं या अन्य कार्यों को करने के लिए करते हैं? अपने जीवन-रस का हम दुरुपयोग कर रहे हैं।
न जाने कितनी विकृतियों से, कितनी ही भ्रान्तियों से हमारा जीवन घिरा हुआ है? इनसे क्या हम मुक्ति के द्वार खोल
सकेंगे? अगर, हम अपनी मुक्ति के द्वार नहीं खोल
पाते हैं, तो हम अपने जीवन-रस का
दुरुपयोग करते हैं। इस जीवन-रस के ही द्वारा हम मुक्ति धाम को प्राप्त कर सकते
हैं। उसे भी छोडिए, वर्तमान
में भी हम उस जीवन-रस का आनन्द प्राप्त कर सकते हैं।
लेकिन, आज हम अपने उस जीवन रस को इन्द्रिय सुखों में समाप्त कर रहे हैं। संसार के
भोगों में लगा रहे हैं। ऐसा करते-करते हमें अनन्त काल हो गया है। अज्ञानता के कारण
हम ये करते चले जा रहे हैं। और इसीलिए ज्ञानी जन कहते हैं कि अज्ञान सबसे बडा पाप
है। कौन सा पाप है? अज्ञान? अज्ञान-मिथ्यात्व है। और मिथ्यात्व
तो अपने आप में सबसे बडा पाप बताया ही गया है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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