अपने घर की पहचान, अपने घर का बोध हमें तभी हो सकता है, जब हमें अपनी चेतना का सम्यक बोध
हो जाए। आत्मा की अनन्त सत्ता का, आत्मा
की अनन्त शक्ति का सम्यक बोध हो जाए। वर्तमान स्थिति कुछ ऐसी है कि अभी हमें अपनी
आत्मा का सम्यक बोध नहीं है। हमें स्वयं का होश कहां है? हमारा जीवन तो तन्द्रा में व्यतीत हो रहा है, बेहोशी में व्यतीत होता है। हम ‘पर’ वस्तु की तरफ आकृष्ट हैं और पर को पाने में ही स्व को
होम रहे हैं।
अगर गहराई से हम सोचें, गहराई से जीवन दर्शन पर चिन्तन करें, जीवन की एक-एक परिस्थिति का अगर हम
विश्लेषण करें तो लगता है कि हमारा जीवन स्विचों का एक जोड है, बटनों का एक जोड है। जैसे एक मशीन
विभिन्न स्विचों से जुडी हुई हो। बिजली के विभिन्न स्विच या बटन उसको संचालित कर
रहे हैं। ठीक उसी प्रकार हमारा जीवन भी स्विचों से संचालित होता है।
समझ लीजिए किसी ने स्विच दबाया और हम तुरन्त क्रोध
में चले गए। फिर किसी ने दूसरा स्विच दबाया और हम अहंकार में चले गए। तीसरा बटन
दबाया तो हम ईर्ष्या से भर गए। चौथा स्विच दबाया और हम प्रेम से भर गए। प्रशंसा से
भर गए। ज्यों-ज्यों स्विच दबाया जाता है, त्यों-त्यों हम उस रूप में रूपान्तरित होते चले जाते हैं। तो सोचने का विषय यह
है कि हमारा मूल अस्तित्व क्या रहा? हम तो स्विचों के अनुसार अपने जीवन को जी रहे हैं। इसे प्रमाद की और बेहोशी की
जिन्दगी कहते हैं। जब हम मूल अस्तित्व से परे जीवन जीते हैं, तो हमारे भीतर बेहोशी प्रमाद आते
कोई देर नहीं लगती है।
जब हम प्रमाद में जाते हैं तो बेहोशी में जाते हैं और
बेहोशी में जाते हैं तो कर्मों का बन्धन होता है। अप्रमाद में कर्मों का बन्धन
नहीं होता है। प्रमाद में ही कर्म बन्धन होता है। अप्रमत्त भाव में जो कर्म बन्धन
होता है, वह अल्प होता है, क्षणिक अवधि वाला होता है, जब कि प्रमत्त भाव में जो
कर्म-बन्धन होता है, वह
दीर्घ अवधि वाला होता है। हम जरा-जरा-सी बातों में प्रमाद में चले जाते हैं या यों
कहिए कि बेहोशी में चले जाते हैं।
कभी कोई व्यक्ति होश-हवास में क्रोध करके बताए।
व्यक्ति सजग हो और उसे गुस्सा आए, जागृत
हो और क्रोध आए ऐसा बहुत मुश्किल होता है। असजगता में ही क्रोध आता है। व्यक्ति जब
आपे में नहीं होता है, आपे
से बाहर हो जाता है, स्वयं
में स्थित नहीं होता है, तभी
वह ईर्ष्या, राग, द्वेष आदि में जाता है। जहाँ कहीं
भी हम विभावों में गए, वहीं
हम बेहोशी की अवस्था में होते हैं। यह सैद्धान्तिक दृष्टिकोण है कि व्यक्ति जब कभी
विभावों में जाता है तो वह स्वयं का आपा खो देता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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