इस संसार में सुख नाम का एक ऐसा कसाई है, जो अपनी शरण में आए हुए व्यक्ति से
अनेक पाप करवाकर उसे नरकादि में धकेल देता है। संसारी सुख एक ऐसा शत्रु है, जो व्यक्ति का स्वागत करके उसको
दुःख के गर्त में पटक देता है। वैसे ऊपरी तौर पर देखने से पुण्य अच्छा प्रतीत होता
है, परन्तु सुख के लिए
बांधा गया पुण्य बहुत खराब है।
संसार में जो सुख हैं, वही आपको संसार में भटकाते रहते हैं। धर्म करने वालों
के लिए यह आधारभूत ज्ञान है। आपका पुण्य आज आपको पाप में ही प्रायः सहायक बन रहा
है। इसीलिए तो आज आप घर में या बंगलों में आराम से बैठे हैं। यदि ऐसा न होता तो आज
के अधिकांश लोगों का स्थान जेल में होता। आपके कर्म से सत्ता भी ऐसी है कि जो
अयोग्य की ही सहायता करती है; अच्छे
और प्रामाणिक लोग तो आज पिसा रहे हैं।
आपको देव, गुरु, धर्म का योग मिलने पर
भी आज आपकी दशा ऐसी है कि आप अधिकांश में योगवंचक, क्रियावंचक और फलवंचक बने हुए हैं। आप देव, गुरु, धर्म के आसपास चक्कर लगाते हैं, परन्तु यह संसार बढाने के लिए या
संसार की ममता उतारने के लिए?
योग न मिलना जिस प्रकार योगवंचकता है, वैसे ही योग मिलने पर भी उसका
उपयोग न करना, यह
भी योगवंचकता है। इतना ही नहीं, यह
अपने आपको धोखा देना है। अपनी आत्मा के साथ छलावा है।
संसार जिसको बुरा लगता है और मोक्ष जिसको अच्छा लगता
है, वही महात्मा कहा जाता
है। उसके तीनों योग अवंचक होते हैं। उसको धर्म सामग्री ही अच्छी लगती है, संसार सामग्री नहीं। वह न दूसरे को
छलता है और न अपनी आत्मा को।
आपको धर्म सामग्री का योग तो मिल गया है, परन्तु उसकी कीमत आपने नहीं समझी
है। गृहस्थ के लिए हैसियत के अनुपात में धर्म सामग्री में जितना अधिक पैसा खर्च हो, वह पहले नम्बर पर है। उस पर से ही
धर्म की सामग्री रुचने का माप निकलता है। श्रीमंत गृहस्थ पैसे बचाकर धर्म करना
चाहता हो तो वह वास्तविक रूप में धर्म करता ही नहीं है।
योग की अवंचकता आते ही जीव का संसार-सामग्री के प्रति
आकर्षण मिटकर धर्म सामग्री के प्रति आकर्षण पैदा हो जाता है। अब तक जीव का
संसार-सामग्री के प्रति आकर्षण था, उसमें जब बाधा पडती तब उसे सांधने के लिए ही उसे धर्म-सामग्री की आवश्यकता
पडती, अन्यथा नहीं। परन्तु यह
अवंचकता आते ही उसकी स्थिति बदल जाती है। संसार की सामग्री पर राग होता है, तब उसे अपना पापोदय लगता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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