घर-परिवार में किसी की मृत्यु पर रोना, विलाप करना और मरने वाला पुरुष है
तो उसकी पत्नी को कोने में बिठाना तथा शोकाकुल परिवार का देव-दर्शन या धर्म-श्रवण
निषेध करना, यह
शास्त्र-विरूद्ध है, धर्म
विरूद्ध है। जैन कुल में तो यह प्रथा होनी ही नहीं चाहिए। मरण का प्रसंग भी
वैराग्य का प्रवेश द्वार बन जाए, ऐसी
दशा होनी चाहिए। मोह को बढाने वाली प्रथा को दूर करो। मोह के नाटक घटे तो धर्म
बढेगा। जैन समाज में कोने में
बैठने की प्रथा और मन्दिर, उपाश्रय
जाने का बंद करना, यह
कलंक रूप है। रुदन करने का कहां होता है? मरने वाला धर्म किए बिना मृत्यु को प्राप्त हुआ, इस भावना से रुदन करते हो तो आत्मा में जागृति आती है
अथवा तो कोई तारक का महाप्रयाण हो, उस समय रोना आए तो यह बात भिन्न है। आपको इस प्रकार का रोना नहीं आता है और
केवल पाप को ही बढाने वाले रुदन आपसे छूटते नहीं हैं।
श्री रावण के कुटुम्बी आपके जैसे नहीं थे। मन्दोदरी
जैसी सती भी स्वयं के स्वामी की मृत्यु को पूरे 24 घण्टे भी नहीं हुए और मुनिराज के पास जाती है। श्री
रावण के अन्य संबंधी- कुंभकर्ण, इन्द्रजीत
आदि भी श्री रामचन्द्रजी के साथ मुनिराज के दर्शन के लिए जाते हैं। यहां मंदोदरी, कुम्भकर्ण, इन्द्रजीत आदि भी जैन भागवती दीक्षा ग्रहण करते हैं।
वे रोने नहीं बैठते। रावण की मृत्यु उनके लिए वैराग्य का निमित्त बनती है। विषय-कषाय में लीन हुई आत्मा को
ऐसा खयाल न आए यह संभव है, किन्तु
विवेक दशा अन्दर होती तो प्रायः मरण के समय यह खयाल अवश्य आता। उस समय अच्छी
सामग्री मिल जाए और अन्तर में सच्चे संस्कार डालने वाले मिल जाएं तो बहुत लाभ हो
जाए। पति के मरण होते ही इस अवधि में बाई को जो अच्छे संस्कार मिल जाएं तो खोटे
संस्कार की खिडकी उसके लिए सर्वदा बंद हो जाती है। किन्तु, इस अवधि में जो खराब संस्कार मिलें तो आत्मा को
उन्मार्ग पर जाते हुए देर नहीं लगती है। शोक, दुःख और विपत्ति के प्रसंग भी विवेकी लोगों के लिए
वैराग्य की उत्पत्ति का कारण हैं। दुःखी के साथ समझदार मनुष्य रोने नहीं बैठते
हैं। कह देते हैं कि ‘संसार
दुःखमय है। नहीं चेतते हैं तो दूसरा दुःख आएगा।’ कोई आदमी धाड से बचकर घर आता है और हजार रुपये जाने
का कहता है, तब
स्नेही क्या कहते हैं? तुम
जीवित आ गए, यही
बहुत अच्छा हुआ, भले
ही हजार रुपये चले गए। इस प्रकार से साधु भी सच्चे स्नेही होते हैं। इसीलिए उनके
पास कोई रुदन करता हुआ भी चला जाता है तो कह देते हैं कि तूं जीवित है, यह बहुत है। साधने योग्य शीघ्र ही
चेत कर साध लो। इस संसार में मरना, जन्म लेना, दुःख
आना यह कोई नई बात नहीं है। इस अवसर में तो धर्म में चित्त अधिक लगाना चाहिए।
जिससे कि दुर्ध्यान से बचाव हो सके। जो जन्मेगा वह मरेगा, यह निश्चित है। इस विपत्ति से धर्म क्रिया बंद हो, यह श्री जिनेश्वरदेव के शासन में
उचित नहीं। जहां कर्म का, जीवन-मरण
का स्वरूप बताया जाता है, वहां
यह होता है क्या? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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