श्री जैनशासन के स्वोपकार और परोपकार के स्वरूप को
समझने की आवश्यकता है। श्री जैनशासन का कथन है कि स्वोपकार का नाश न हो, क्योंकि स्वोपकार की सिद्धि होती
हो ऐसी प्रवृत्ति में ही परोपकार समायोजित है। जिस परोपकार में स्वहित का नाश हो, वह परोपकार वस्तुतः परोपकार है ही
नहीं।
आज कितने ही परोपकार की और परसेवा के दिखावे की भावना
बढती है, किन्तु उसमें अज्ञान का
अंश अधिक है। कारण कि जो ध्येय दृष्टिसन्मुख रहना चाहिए था, वह ध्येय उन लोगों की दृष्टिसन्मुख
नहीं रहा है। ‘एक-एक
अच्छी क्रिया स्वयं की ही आत्मकल्याण की मुख्यता रखकर करनी चाहिए’, इस प्रकार यह शासन का फरमान है।
यह ध्येय दृष्टिसन्मुख रहने से आत्मा का अधिक फायदा
होता है। चाहे जैसे भयंकर प्रसंगों में भी यह ध्येय दृष्टिसन्मुख हो तो समाधि बनी
रहती है। कोई भी अच्छी से अच्छी और बहुत परिश्रम पूर्वक की हुई प्रवृत्ति का
परिणाम कदाचित् खराब आ जाए, तो
भी आत्मा को उस वक्त दूसरों की तरह आघात लगता नहीं है। जिस प्रवृत्ति के
परिणामस्वरूप जनता वाह-वाह ही बोले वैसी ही प्रवृत्ति शुद्ध बुद्धि से करने पर भी
जनता में कदाचित् निन्दा हो जाए तो भी शुभ ध्येय वालों को आघात नहीं लगता है।
जिसके ऊपर स्वयं ने उपकार किए हों, वह भी अधम बनकर उपकार के बदले
अपकार करता हो, तब
भी आत्महित के ध्येय वालों को उसके ऊपर दया आती है, क्रोध नहीं आता। वह ऐसा नहीं सोचता कि ‘मैंने इस पर इतना उपकार किया तो भी
इसने ऐसी धृष्टता की।’ वह
तो ऐसा मानता है कि ‘वस्तुतः
मैंने अपनी आत्मा पर ही उपकार किया था और स्वयं की आत्मा पर किया गया उपकार कभी
निष्फल नहीं जाता।’ ऐसी
मान्यता के योग से सामने वाला व्यक्ति उपकार का बदला अपकार से दे, तब भी वह आत्मा
समाधिपूर्ण दशा को भोग सकता है।
‘मैं जो अच्छा कार्य करता हूं, वह मेरी आत्मा के उपकार के लिए ही
करता हूं।’ ऐसी
भावना वाले परोपकार के चाहे जितने भी कार्य करें, तो भी उनमें अहंकार नहीं आता। ‘मैं परोपकारी’ ऐसी अहं-वृत्ति उनमें नहीं आती।
मैंने अमुक के ऊपर उपकार किया, अमुक
गांव में मैंने उपकार किया, अमुक
देश में जाकर मैं लोगों को तिराकर आया हूं, ऐसी-ऐसी बातें वह अहंकार-वृत्ति से कभी नहीं बोले।
उसको तो ऐसा ही लगता है कि ‘मैंने
जो कुछ अच्छा किया है, वस्तुतः
वह अन्य के लिए नहीं, अपितु
मेरे स्वयं के भले के लिए ही किया है।’ इससे यह समझ लें कि स्वोपकार के लिए ही परोपकार करना है। स्वोपकार की परवाह ही
नहीं और परोपकार की लालसा, ऐसी
दशा ज्ञानी की नहीं होती है।-आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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