आज समाज की बहुत विचित्र दशा है। मुनि को उपसर्ग न हो
तो भी खडे करना, ऐसा।
आज तो ऐसी दशा भी है कि यह तक भी कह दिया जाता है कि ‘साधु बाहर क्षेत्र में क्यों नहीं विचरते? आहार न मिले तो भूखे रहें। साधु
मुफ्तखोर हुए हैं’, ऐसा
कहने वाले दरअसल श्री जिनेश्वर देव के संयम के स्वरूप को समझते ही नहीं हैं। संयम
की साधना न हो, वहां
मुनि नहीं जा सकता, ऐसी
बातें ये समझें कहां से? संयम
की विराधना करके तो साधु लोग तीर्थयात्रा भी नहीं कर सकते। श्री जिनेश्वर देव की
आज्ञा के अनुसार ही संयम की आराधना करना, यही साधु के लिए वास्तविक यात्रा है।
इस आज्ञा को लोपित करके चलना, यह संयम को बेच खाने जैसा है। बाकी विचरने योग्य
क्षेत्रों में तो साधु यथाशक्य विचरते ही हैं और स्वयं के आत्महितार्थ विधि के
अनुसार यात्रा भी करते हैं। यानी सुसाधुगण विकट होते हुए भी योग्य प्रदेशों में
विचरण करते ही नहीं हैं, ऐसा
है ही नहीं। परन्तु, आज
संयम को बेच खाकर भटकने वाले, स्वयं
की वाह-वाह के लिए भोले लोगों के हृदय में ऐसी खोट पैदा करें और धर्मद्रोही ऐसा
बोलें, इसमें कोई आश्चर्य या
नवीनता नहीं है।
शासन के सन्मुख आक्रमण का प्रसंग आए, ऐसे समय में भी स्वयं की शक्ति को
गोपित करने वाले, मौन
रहकर मान-पान को सुरक्षित रखने वाले और स्वयं की शिथिल दशा को छुपाने का प्रयत्न
करने वाले, ऐसा भी कहते सुने जाते हैं कि ‘भगवान कह गए हैं- पाखण्डी होने को हैं, वे होंगे और शासन तो 21 हजार वर्ष तक चलने वाला ही है, फिर यह तूफान क्यों? नाहक की टीका-टिप्पणी क्यों? आक्षेप क्यों? बस, नवकार गिनना चाहिए।’
इस प्रकार आज कितने ही साधु और श्रावक भी कहते हैं।
उनसे पूछा जाए कि श्री आगम ग्रंथों में क्या है? परमोपकरी पूर्वाचार्यों द्वारा रचित ग्रंथों में क्या
है? उन्मार्ग का उन्मूलन
कितना किया गया है? सच्चे
को सच्चा और झूठे को झूठा जाना है या नहीं? उन्मार्ग के खण्डन के लिए तो लाखों श्लोक
परमोपकारियों ने लिखे हैं।
मिथ्यावाद का गणधर देवों ने पूर्ण रूप से विरोध किया
है। सच्ची स्थिति इस प्रकार होने पर भी आज रक्षण के प्रश्न करने के बदले शान्ति
रखकर नवकार गिनने के लिए बोलने वाले मूर्ख, शान्ति की उपासना में लगे हैं, यह दुःख की बात है। आक्रमण के
प्रसंग पर तो गलत शान्ति की बातें करने वाले जैन शासन के घातक हैं। आपत्ति के समय
शक्ति होते हुए भी आपदा का निवारण न करे और उसकी उपेक्षा करे तो वह विराधक माना
जाता है। गलत को गलत तरीके से मानना, सच्चे की सेवा करना, सच्चे
के सेवक बनकर दृढ रहना और सत्य पर होने वाले हमलों को निष्फल बनाना, यही सच्ची शान्ति का मार्ग है और
सच्ची शान्ति का यह मार्ग कल्याण-कामियों द्वारा सेवित होना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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