क्षमा एक आत्मिक गुण है !
‘क्षमा वीरस्य भूषणम्’ का अर्थ यह नहीं है कि ‘क्षमा दुर्बलस्य दूषणम्’। वीर आदमी के लिए क्षमा भूषण है
और निर्बल आदमी के लिए क्षमा दूषण है, ऐसा मानने वाले अज्ञानी हैं। क्षमा तो एक आत्मिक गुण है। सबल हो या निर्बल, क्षमा गुण जिनमें प्रकट हुआ हो, उनके लिए तो यह गुण भूषणरूप ही
होता है। केवल प्रत्यक्ष घटनाओं को देखकर अनुमान बांधने वालों को ऐसा लगता है कि ‘क्षमा, यह सबल का भूषण है और निर्बल का दूषण’। यह सतही सोच है, आत्म-परिणामी सोच नहीं है।
‘दुर्बल को किसी ने गाली दी या मारा
और उस वक्त सामने वाले व्यक्ति को वह गाली न दे अथवा न मारे तो उसको क्षमाशील कैसे
कहा जा सकता है, क्योंकि
वह तो दुर्बलता के कारण और न पिटे इसलिए चुप रहता है, वह क्षमाशील कैसे हुआ?’ इस प्रकार का प्रश्न आज बहुत से लोगों को व्यथित कर
रहा है और अज्ञानी होकर भी ज्ञानी होने का ढोंग करने वाले बहुत से लोग, ऐसा प्रश्न खडा करके भद्रिक लोगों
को व्यथित कर रहे हैं। वस्तुतः इस प्रश्न में कुछ है ही नहीं। क्षमा का गाढ संबंध
तो मन के साथ है। शरीर दुर्बल हो तो भी मन जो दृढ हो, मजबूत हो और आत्मा सुविवेकी बना हुआ हो तो दुर्बल
शरीर वाला भी सुन्दर क्षमाशील हो सकता है। शरीर भले ही दुर्बल हो, किन्तु जो आदमी गाली देने वाले को
भी गाली देने की वृत्ति रहित हो, वह
सच्चा क्षमाशील है। कोई मारे तब भी ‘मारने वाले का बुरा हो’, इतना
भी विचार जिसको न आए और मारने वाले के प्रति करुणा का भाव रखे, दया का चिन्तन करे; वह शरीर से दुर्बल होने पर भी
सुन्दर क्षमागुण को धारण करने वाला है।
वस्तुतः सच्चा क्षमाशील तो उसी को कहा जाता है जो
गाली के बदले गाली और मार के बदले मार देने की शक्ति है या नहीं, इसका विचार ही नहीं करता है, किन्तु शान्ति रखकर सामने वाले के
ऊपर दया का चिन्तन करता है। सच्ची क्षमा वही है, जो दयामय हो। सच्ची क्षमा स्व या
पर किसी का बुरा करने वाली नहीं होती। मुक्ति के इरादे से क्रोध का निग्रह, इसी को ही ज्ञानियों ने सच्ची
क्षमा कही है। आत्मा में क्षमा का गुण स्वाभाविक रूप से बन जाए, तो वह उच्च कोटि की क्षमाशीलता है।
ऊॅंची से ऊॅंची कोटि की क्षमाशीलता भी दुर्बल शरीर वालों में आ सकती है। इससे यह
भी एकदम स्पष्ट है कि सच्चा क्षमा-गुण वीर में हो या दुर्बल में हो, वह है भूषणरूप ही। ऐसा होने पर भी
बलवान में क्षमागुण हो तो दुनिया के जीवों को इसका शीघ्रता से विश्वास हो जाता है
और स्वयं में ताकत होने पर भी सामने वाले की गाली या मार को सहन कर लेता है, उसका बुरा चिन्तन नहीं करता और
आत्म-कल्याण की ही अपेक्षा रखता है, वह बहुत ही स्तुतिपात्र है।-आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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