धर्म-विरूद्ध जाने वाली संतान को माता-पिता और
पाप-मार्ग में बच्चों को धकेलने वाले माता-पिता को उनकी संतान कह सकती है कि यह
उचित नहीं है, ऐसा
नहीं चलेगा। गलत के आगे गर्दन झुका कर उसे स्वीकार कर लेना, यह जैन कुल के संस्कार नहीं हैं।
आज के कितने ही धर्मी बात-बात में गलत के आगे हार
मानकर यह कह देते हैं कि ‘क्या
करें?’ दूसरा न हो, तो भी धर्मनाशक को इतना तो कहा ही
जा सकता है कि मेरे साथ संबंध रखना हो तो तुम्हें धर्मनाशक प्रवृत्तियां छोडनी
पडेंगी। यह तुम नहीं छोड सकते हो तो कृपा करके मेरे साथ बोलो भी नहीं। लडके
माता-पिता को कह सकते हैं कि आप बडे अवश्य हैं, आपकी भक्ति (सेवा) करने के लिए हम बंधे हुए हैं, किन्तु कृपा कर हमको पाप की आज्ञा
न करें। पापमय प्रवृत्ति में न जोडें।
माता-पिता भी अपने लडके को कह सकते हैं कि ‘तुमने हमारा बांझपन मिटाया, यह बात सही है, हमारी सम्पत्ति का अधिकार तुमको
देने में भी हमें कोई आपत्ति नहीं, किन्तु धर्म विरूद्ध व्यवहार मत करो। शास्त्र के लिए अथवा देव, गुरु, धर्म के लिए अंट-शंट मत बोलो। अगर नहीं मानोगे और ऐसा
ही व्यवहार करोगे तो तुम्हें फूटी कोडी भी मिलने वाली नहीं है और पुत्र के होते
हुए भी नहीं पूत होकर बांझ कहलाने में भी हमें कोई दुःख नहीं होगा।’
मां-बाप तो संतान को धर्म में जोडे और संतान मना करे
तो पूछे कि क्यों नहीं होगा? किन्तु
मानो कि ऐसा नहीं बनता हो और धर्म-विरूद्ध जाते हुए को भी नहीं रोक पाएं, जो इतना भी नहीं बने और इसके लिए
योग्य कोशिश भी न हो सके तो वे मां-बाप माता-पिता हैं क्या? आज के कितने ही माता-पिता यह कहते
हैं कि इकलौता पुत्र है, उसको
ऐसा कैसे कहा जा सकता है? कदाचित्
कहें तो हमारी सम्पत्ति को भोगने वाला कौन? सचमुच में ऐसे आदमी धर्म की वास्तविक आराधना के लिए
अपात्र के समान गिने जाते हैं। ‘ऐसे
माता-पिता के पुत्र के रूप में मेरे से धर्म विरूद्ध पग भी नहीं ही रखा जाए’, ऐसा भय पुत्र को मां-बाप का नहीं
हो? यदि इतना भी नहीं हो तो
माता-पिता कहलाने मात्र से क्या?
जिसको अपना दूध पिलाया, स्वयं गीले में सोकर जिसे सूखे में सुलाया, पाल-पोष कर बडा किया, वह आपका कहना न माने तो समझो कहीं
संस्कारों में ही खोट है। हितस्वी माँ-बाप तो कहते हैं कि तेरे धर्म-विरूद्ध
व्यवहार से हमारा नाम तथा कुल लज्जित होता है। जो माता-पिता स्वयं की संतान को
धर्म के विरूद्ध जाते रोकते नहीं, उसकी
भयानक स्वच्छन्दता का पोषण करते हैं अथवा रोकने की स्थिति में होते हुए भी उसके
व्यवहार को चलने देते हैं, वे
माता-पिता जानबूझकर स्वयं की संतान को दुर्गति में भेजने का, जाने देने का पाप इकट्ठा करते हैं।
इससे बचने के लिए जड से ही अच्छे संस्कार दो।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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