जिसको वास्तविक प्रकार से स्व और पर का हित साधना है, उसको स्वोपकारी बनना चाहिए।
स्वोपकारी यथाशक्य परोपकारी नहीं होता, यह बनता ही नहीं है। परोपकार का वही कार्य करना चाहिए, जो कार्य स्वहित का बाधक नहीं, अपितु साधक होता हो और सच्चे
परोपकार का कोई भी कार्य स्वोपकार में बाधक होता ही नहीं है। यह समझ लें तो संयम
का नाश करके भी अन्यत्र विचरण करने की और परोपकार की बेवकूफी भरी बातें करते हैं,
वे कर सकते हैं क्या? परोपकार
के नाम से स्वयं के संयम का नाश करने वाले साधुगणों को भी यह बात समझने की
आवश्यकता है।
‘परोपकार करते हुए स्वोपकार का नाश
हो तो हर्ज नहीं है’, ऐसा
यह शासन फरमाता ही नहीं है। इस शासन ने एक भी क्रिया ऐसी प्रतिपादित नहीं की है कि
जो क्रिया यथाविधि की जाए तो स्व का उपकार न हो। श्री जैनशासन में प्रतिपादित
प्रत्येक क्रिया स्वोपकार साधक ही है। स्वोपकार यह ध्येय (साध्य) और परोपकार यह
साधन है। ध्येय/साध्य के रूप में परोपकार की तरफ नहीं देखना, अपितु स्वोपकार की तरफ ही देखना
है। जो स्वोपकार की तरफ देखेगा, वह
शक्य परोपकार से भी कभी भी वंचित नहीं रहेगा और स्वोपकार की परवाह के बिना जो
परोपकार करने के लिए निकलते हैं, वे
कब स्व-पर के हित के घातक बनेंगे, यह
नहीं कह सकते।
जो सच्चे परोपकारी बनना हो तो परोपकार की धुन त्याग
कर स्वोपकारी बनने की उत्तम भावना को विकसित करो। आज तो रेल विहारी बने हुए और
साधुता के आचारों से भ्रष्ट बने हुए वेशधारीगण स्वयं की आचार-भ्रष्टता आदि पर
पर्दा डालने के लिए परोपकार की आड ले रहे हैं और अज्ञानी जनता उन पापियों को परोपकारी
मानकर सत्कार भी करती है।
संयम के ऊपर आग को छोडकर परोपकार करने की बातें करने
वाले परोपकार शब्द का हास्य करते हैं। आज के वातावरण में यह समझ में आना कठिन है।
संयम के आचारों का उपदेश करने वाले ज्ञानियों में उपकार-बुद्धि की कमी नहीं थी।
फिर भी उन तारकों ने यह फरमाया है कि जिस क्षेत्र में संयम-निर्वाह हो सके, उसी स्थान पर ही विचरण करना चाहिए
और संयम का नाश कर परोपकार करने के लिए निकलना नहीं चाहिए। तीर्थयात्रा के लिए भी साधु को क्या फरमाया है? साधु के लिए संयम पालन ही बडी से
बडी यात्रा है। साधुगण तीर्थयात्रा नहीं करे, ऐसा नहीं, किन्तु तीर्थयात्रा करने की लालसा में संयम यात्रा में शिथिलता नहीं आने देवे।
बात यह है कि सुसाधुगण गुजरात या काठियावाड से बाहर नहीं विचरे, ऐसा हम नहीं कहते हैं।
शक्ति-सामग्री के अनुसार सुसाधुगण बाहर भी विचरे हैं और विचरते हैं। परन्तु कितने
ही कुसाधुओं और वेशधारियों ने संयम यात्रा को शिथिल कर, संयम यात्रा की परवाह को छोडकर, जिस रीति से विचरण किया है और करते
हैं, वह साधु मर्यादा के
अनुरूप नहीं है, यह
स्पष्ट बात है।-आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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