सच्चा सेवक स्वयं की जीत को स्वामी की जीत बताता है
और स्वयं की हार को खुद की कमी मानता है। श्री जिनेश्वर देव के सेवक भी ऐसे होने
चाहिए। शासन के जो-जो कार्य सिद्ध हों, सफल और यशस्वी बनें, इसमें
प्रताप श्री जिन शासन का ही मानना चाहिए और किसी विपरीत संयोग आदि के कारण शासन का
कार्य करते हुए निष्फल हो जाएं तो इसमें अपनी कमी माननी चाहिए।
आपत्ति आए तो अपना पापोदय मानना चाहिए और कार्य
सिद्धि में प्रताप देव-गुरु-धर्म का, शासन का मानना चाहिए। यही स्वामी के प्रति सेवक का सच्चा समर्पण-भाव है। श्री
वीर हनुमानजी के चरित्र से हमें यह बात सीखनी चाहिए। लेकिन, आज शासन के सेवकों की क्या वास्तव
में ऐसी ही दशा, ऐसा
ही सोच है?
साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका इस चतुर्विध श्री संघ में जो कोई हो, वे सभी शासन के सेवक गिने जाते
हैं। इन सब में से कितनों की यह दशा होगी कि शासन की कार्यसिद्धि में शासन का
प्रताप मानते हैं और विपत्ति आए या असफलता मिले तो इसमें स्वयं का पापोदय अथवा
स्वयं की कमी मानते हों? बहुत
ही विरल आत्माओं की आज यह दशा देखी जाती है।
आज तो कुछ समुदाय ऐसा है कि ‘अच्छा हो तो स्वयं के नाम पर चढाते हैं और बुरा हो तो
धर्म के नाम पर चढाते हैं।’ ऐसे
यशलोलुप पामर प्राणी श्री जिनशासन की वास्तविक सेवा नहीं कर सकते हैं और संकट की
स्थिति में उल्टी-सीधी बातें खडी करके अलग हो जाते हैं। ऐसे लोग संकट की स्थिति
में बहुत विश्वास करने योग्य भी नहीं होते और समाज को ऐसे लोगों से सावधान भी रहना
चाहिए।
आपको जो जिनेश्वर देव के अनुपम शासन की सच्ची सेवा ही
करनी हो तो समर्पण का यह गुण बराबर प्राप्त करो और चाहे जैसे समय में भी सिद्धि
में शासन का प्रताप मानो और विपत्ति आदि के प्रसंगों पर स्वयं का पापोदय मानो।
ईश्वर को जगत कर्ता मानने वाले भी ऐसा घोटाला करते हैं कि दुःख में ईश्वर के ऊपर
टोपी चढा देते हैं और अच्छा हो तो अच्छा करने वालों के रूप में अपने को मानते हैं।
इस शासन को प्राप्त करने वालों की मनःस्थिति ऐसी होनी चाहिए कि अच्छे में देव-गुरु
और धर्म का प्रताप माने, परन्तु
उससे विपरीत स्थिति होनी ही नहीं चाहिए। असफलता या विपरीत परिणामों के समय जरूर
हमें स्वयं की कमी, कमजोरी
ढूंढनी चाहिए और आत्म-गवेषणा करनी चाहिए।
अच्छा हो तो स्वयं के नाम पर और बुरा हो तो दोष धर्म
को दें, ऐसे लोग जैन शासन की
सेवा नहीं कर सकते हैं। विपरीत इसके ऐसे लोग अपने स्वार्थों के लिए धर्म को बेचते
हैं, परिणामतः वे कभी सुखी
नहीं हो सकते।-आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें