आपको देव,
गुरु और धर्म सम्बंधी अच्छी से अच्छी सामग्री मिली है, फिर
भी आप मोक्षमार्ग के प्रति कितने लक्ष्यशील हैं? आप अज्ञानी हैं या
विषय रस में क्षुब्ध हैं?
हमारे यहां तो जो जानकार हो, परन्तु रुचि-रहित हो
तो भी अज्ञान कहा जाता है। जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञान भी निश्चयात्मक होना
चाहिए। तत्त्वों के विषय में सच्चा ज्ञान निश्चयपूर्वक होना चाहिए। इसके बिना, अच्छी
सामग्री भी हाथ में आ जाए तो उसके हाथ से निकल जाने में कितनी देर लगने वाली है?
जिसे सम्बंध का महत्त्व मालूम नहीं होता, वह व्यवहार में कैसे टिक सकता
है? सम्बंध निभा तो निभा,
नहीं तो तोडते भी देर नहीं और जोडते भी देर नहीं। इसी तरह
यह देव-गुरु-धर्म का सम्बंध हम कहां तक निभाते हैं? यह सम्बंध कितना
बहुमूल्य है,
इसका ज्ञान नहीं है, इसलिए ‘अब
कभी यह सम्बंध न टूटे’,
ऐसा व्यवहार करने की इच्छा भी नहीं है, ऐसा
कहूं तो चल सकता है न?
आपके इस देव-गुरु-धर्म के सम्बंध को कोई तोडना चाहे तो
सरलता से तोड सकता है या उसे ऐसा करने में निराश होना पडेगा? भवांतर
में भी यह देव-गुरु-धर्म का सम्बंध बना रहे, ऐसी इच्छा हो तो बोलो! बच्चा
पतासों में हीरा दे सकता है, क्योंकि उसके लिए पतासा बडा और मीठा है; वैसे
ही संसार-सुख के लोभ में आप इस देव-गुरु-धर्म की उपासना को छोड देंगे या नहीं?
भगवान के शासन के तत्त्वज्ञान के विषय में आप अनजान हैं, इसलिए
उन्मार्ग में घसीट लिए जाने में क्या देर लग सकती है? आप
प्रतिदिन पूजा,
सामायिक, व्याख्यान श्रवण, गुरुभक्ति
आदि करते हैं तो भी कभी यह विचार नहीं आया कि तत्त्वज्ञान के बिना कैसे चलेगा? संसार-सुख
के रस में लीन रहेंगे तो भी यह क्रिया मुक्ति दे देगी? क्या
केवल क्रिया से मुक्ति हो सकती है?
शास्त्र कहते हैं कि- ‘ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः।’ क्या यह झूठ है? आप
नहीं समझते हैं,
परन्तु समझने का प्रयास करना चाहिए, ऐसा
भी आप मानते हैं या नहीं?
कोई समझाए तब प्रसन्नता होती है? या
हम जो करते हैं,
वह ठीक है, ऐसा मानते हैं? व्यापारी
के यहां माल लेने आने वाला क्या कहता है? माल पसंद आएगा और भाव पोसाएगा
तो लेंगे, परन्तु लेने की भावना तो है न? वैसे ही, आप
यहां आते हैं तो तत्त्वज्ञान के जिज्ञासु बनकर आते हैं न? व्यवहार
में उतर सकने जैसी न हो तो भी बात तो पसंद आती है न? ‘समझ में आएगा तो
मानेंगे और शक्ति होगी तो लेंगे’ ऐसा आपके मन में है या नहीं? इस
प्रकार खुले दिल से,
खुले दिमाग से, आप प्रतिदिन जिज्ञासु बन कर
सुनेंगे तो पाट पर बैठने वालों को आपको समझाने के लिए प्रयत्न करना पडेगा। परन्तु, आप
तो केवल ‘हां, जी’ करने वाले हैं,
तो क्या हो सकता है? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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