तत्त्वों के स्वरूप का ज्ञान भी सम्यक्त्व-प्राप्ति का साधन है। आत्मा में
मिथ्यात्व मोहनीय का क्षयोपशम अर्थात् सम्यग्दर्शन का गुण निसर्ग से भी प्रकट होता
है और अधिगम से भी। मिथ्यात्व मोहनीय का क्षयोपशमादि यदि निसर्ग से हो तो यह बात
अलग है, अन्यथा मिथ्यात्व मोहनीय का क्षयोपशमादि प्रयत्नसाध्य वस्तु भी है। जीवादि
तत्त्वों के स्वरूप का सच्चा ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न, सम्यग्दर्शन
गुण को प्रकट करने का साधन है। जिन्हें सम्यग्दर्शन गुण की प्राप्ति हुई है, वे
भी तत्त्वज्ञान द्वारा अपने सम्यग्दर्शन गुण की निर्मलता प्राप्त कर सकते हैं।
तत्त्वों के स्वरूप का सच्चा और निश्चयात्मक ज्ञान विरति के परिणामों को पैदा करने
में भी बहुत सहायक सिद्ध होता है।
ज्ञानी को सम्यक चारित्र की प्राप्ति भी सुलभ है और सम्यक चारित्र का निरतिचार
पालन भी सुलभ है,
इसीलिए हमारे यहां कहा गया है- ‘पढमं
नाणं तओ दया।’
दया को पैदा करने में और दया के पालन में तत्त्वज्ञान बहुत
सहायक होता है। ऐसा जानने पर भी, हममें तत्त्वों के स्वरूप को जानने की
इच्छा कितनी है?
क्या आप ऐसा कह सकते हैं कि ‘तत्त्वों के स्वरूप को
जानने की हमने मेहनत की,
परन्तु ज्ञानावरणीय कर्म के दोष से तत्त्वज्ञान न पा सके? समय
आने पर जितनी समझने की शक्ति है, उतना समझने के लिए दिल खुला रखा है? या ‘जो
हम करते हैं,
वह ठीक है, ऐसा हृदय में ठसा रखा है? आप
केवल अज्ञानी ही हैं या अज्ञानी के साथ आग्रही भी हैं? जीवादि
तत्त्वों के स्वरूप को आप नहीं जानते, परन्तु जीवादि तत्त्वों के
स्वरूप को कोई समझाए तो बुद्धि के अनुसार उसे समझने की आपकी तैयारी है या नहीं?’ अन्य
कामों में रस आए और तत्त्व की बात में रस न आए तो ज्ञान-प्राप्ति के दरवाजे बंद
हैं, ऐसा ही मानना पडेगा न?
वर्तमान समय में धर्म के विषय में ऐसा वातावरण बनता जा रहा है कि अज्ञान में
सुख और ज्ञान के प्रति उपेक्षा। तत्त्व की बात में उतरना, कई
लोगों को प्रपंच जैसा लगता है। धर्म की कोई बात निकले और स्वयं न जानता हो तो तनिक
भी क्षोभ के बिना ऐसा कह दिया जाता है कि- “हमने तो दूर से ही
नमस्कार कर रखा है,
अतः खटपट नहीं। हम पूजा कर लेते हैं और कभी मन हो जाए तो
जहां साधु-महाराज हो, वहां उपाश्रय में जा आते हैं और जो बनती है, वह
क्रिया कर लते हैं। यदि इसमें गहरे उतरें तो हम अपना चैन ही गंवा बैठें।” सब
पापों के मूल ‘मिथ्यात्व’
को टालने और सब धर्मों के आधारभूत ‘सम्यक्त्व’ को
पाने के लिए शास्त्र कहते हैं कि ‘तत्त्वज्ञान प्राप्त करके, तत्त्वों
के स्वरूप के विषय में सुनिश्चित मतिवाला बनना आवश्यक है’, जबकि
आजकल के कतिपय मूर्ख लोग तत्त्वज्ञान की बात को समझने के प्रयास को अपना सर्वस्व
खोने जैसा मानते हैं,
यह कितना दुःखद है! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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