मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

पुण्य से मिला, परन्तु कीमत नहीं जानी


सुदेव-सुगुरु-सुधर्म हमें पुण्य से मिले हैं, ऐसा कहना और इन्हें पहचानने की इच्छा भी नहीं करना, यह बताता है कि ऐसे पुण्य की कीमत आपकी दृष्टि में कितनी है? कोटिपति मनुष्य हो, तो भी किसी को आंगन में चढने न दे, जो आए उससे ले, परन्तु किसी को दे नहीं, धन-धन किया करता है; वह कहता है कि मेरा पुण्य है।तो इससे नकारा नहीं जा सकता है, परन्तु उस पर दया तो आती है न? ऐसा लगता है कि पुण्य तो है, परन्तु वह मजदूरी कराने वाला और पाप बंध कराने वाला है। पुण्य से मिला है, परन्तु यदि हम उसकी कीमत न करें तो वह पुण्य कैसा? पापानुबंधी है न?

पुण्य के योग से लक्ष्मी मिले, परन्तु उसके योग से नरक में जाना पडे, तो उस लक्ष्मी की प्रशंसा कैसे की जा सकती है? और, जो पुण्य से मिली लक्ष्मी का सदुपयोग करता है, उसके लिए लोग भी कहते हैं कि ऐसे को लक्ष्मी मिलना सार्थक है।कतिपय श्रीमंतों के लिए लोक में ऐसी प्रसिद्धि होती है कि इनका नाम न लेना, उठते ही यदि इनका नाम ले लिया तो खाने को नहीं मिलेगा।जबकि सदुपयोग करने वाले दूसरे भाग्यशाली को सब याद करते हैं।

ऐसे भी श्रीमंत होते हैं कि वे जहां जाते हैं, बहुत से लोग उनके साथ होते हैं। साथ में जाने वालों को सुविधा की चिन्ता नहीं करनी पडती। उन्हें कोई पूछे कि धंधा छोडकर इस सेठ के पीछे क्यों फिरते हो? तो वह कहेगा कि सेठ के साथ फिरने में भी लाभ है। ऐसा क्यों? प्रसंग पर सेठ काम में आता होगा, इसलिए न? ऐसों के साथ पैदल चलकर भी जाना लोगों को अच्छा लगता है, परन्तु लोभी सेठ के साथ मोटर में बैठने का भी मन नहीं होता। क्यों? व्यर्थ का समय जाता है और बीच में उतार दे तो पांव रगडते-रगडते घर जाना पडे। आज प्रायः कहा जाता है कि बडे लोगों के साथ ज्यादा पहचान हो तो धक्के ज्यादा खाने पडते हैं। जरा चले जाओऐसा कहे तो मना नहीं किया जा सकता। नौकरी पर न जा सके या नौकरी चली जाए तो भी वे उसकी खबर लेनेवाले नहीं।

पागल व्यक्ति भी कहता है कि मेरा पुण्य।और समझदार भी कहता है कि मेरा पुण्य।परन्तु दोनों में बहुत अंतर है। अतः विवेक से बोलो। ये देवादि मिले, यह पुण्य से, परन्तु कोई आपको देव का स्वरूप पूछे तो आप कहेंगे, ‘मालूम नहीं।तो जो आपको पुण्य से मिला, उसकी कीमत कितनी? आपको जो मिला है, वह बहुत अच्छा है, इसमें दो मत नहीं। परन्तु, आप स्वयं ढूंढकर अच्छा प्राप्त करने के लिए निकले हैं? अच्छा मिला है, परन्तु अच्छे को अच्छा समझने का प्रयत्न नहीं है न? यदि जैनों को जो मिला है, उसकी कीमत होती तो आज भी जैन शासन की अनोखी जाहोजलाली होती! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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