आज जो ऐसा मान बैठे हैं कि ‘हम जैन कुल में जन्में हैं और भगवान्
द्वारा प्ररूपित क्रियाओं में से अमुक-अमुक क्रियाएं हम करते हैं, इसलिए
हम समकिती हैं’,
उन्हें विचार करना चाहिए कि देव, गुरु
और धर्म का सेवन कुलाचार मात्र से करने वालों में कई बार ऐसी आग्रहशीलता भी होती
है कि ‘यदि आगम की बात उनकी मान्यता से विरुद्ध पडती हो, तो
वे अपने कुलाचार को प्राथमिकता देते हैं, परन्तु आगम के वचनों को
प्रधानता नहीं देते। वे कह उठते हैं कि, ‘आगम चाहे जो कहे, हमारे
कुल में यह माना जाता रहा है, अतःएव हम तो ऐसा ही मानेंगे और ऐसा ही
करेंगे।’ ऐसी आग्रही आत्माओं को भी ज्ञानियों ने आभिग्रहिक मिथ्यात्व का स्वामी कहा है।
सम्यग्दृष्टि आत्मा कदापि अपरीक्षित के पक्षपाती नहीं होते। कदाचित् अनाभोग के
कारण उन्हें विपरीत बोध भी हो जाए, यह संभव है, अथवा
वे जिस गुरु को गीतार्थ मानकर प्रवृत्ति करते हों, वह गुरु उन्हें कुछ
समझा दे और इस कारण वे उसे मान लें, यह भी संभव है, परन्तु
उनके हृदय में एक बात बैठी हुई होती है कि, ‘यह बात भगवान् श्री जिनेश्वर
देवों ने कही है,
अतः सत्य है और इसीलिए मैं मानता हूं।’
ऐसे जीवों को यदि कोई समझाने वाला मिल जाए कि ‘भगवान् श्री जिनेश्वर
देवों ने ऐसा नहीं फरमाया,
किन्तु ऐसा फरमाया है’, तो वे अपनी मान्यता का आग्रह
नहीं रखते। क्योंकि,
उन्होंने जो असत्य को भी सत्य माना था, वह
भगवान् श्री जिनेश्वरदेव के वचन के रूप में सत्य माना था।
उनकी कसौटी क्या है?
यही कि, ‘यह जिनेश्वर देवों ने कहा है या नहीं?’ यदि
कहा है तो सत्य है और यदि नहीं कहा है तो असत्य है, इसमें उन्हें अनाभोग
से विपरीत समझ भी हो जाए अथवा जिन पर उन्हें विश्वास हो कि ‘ये
गुरु जो कहते हैं,
वह भगवान् जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित ही कहते हैं, उससे
विपरीत कहते ही नहीं’,
ऐसे गुरु कोई बात भगवान् के वचन के नाम के विपरीत ठसा दे, तो
ऐसी विपरीत मान्यता होते हुए भी, उसका सम्यक्त्व चला नहीं जाता। उसमें असद्
आग्रह नहीं होता।
जब भी उसके समक्ष उचित रीति से भगवान श्री जिनेश्वर देव के वचनों को रखा जाए
और उसे समझाया जाए कि वह जो मान रहा है, वह असत्य है; तब
वह इस बात की परीक्षा करने का प्रयत्न करता है कि ‘जो वह मान रहा है, वह
श्री जिनेश्वर देव का कहा हुआ है या यह जो कह रहा है, वह
श्री जिनेश्वर देव द्वारा प्ररूपित है?’ ऐसा जीव अपने कुलाचार द्वारा
आगम की परीक्षा को बाधित नहीं करता।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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