मंगलवार, 30 सितंबर 2014

ज्ञान मतलब स्व-स्वरूप को जानना


जीवादि तत्त्वों का ज्ञान हो, परन्तु यदि यह निश्चयात्मक न हो तो वह भी वस्तुतः ज्ञान नहीं, अज्ञान ही है। जीवादि पदार्थों को उनके यथार्थ स्वरूप में जानना और मानना सम्यक्त्व है। ऐसा सम्यक्त्व बहुमूल्य है।

भगवान ने जो कहा है, वही सत्य है, ऐसा मानना भगवान के निश्चय को अपना निश्चय बनाने के समान है, अतः भगवान ने जो कहा है, वही सत्य है, ऐसा अंतःकरण से स्वीकार करने वाले में भी सम्यक्त्व होता है। ऐसा सम्यग्दृष्टि भी संयोगानुसार, भगवान ने जो कुछ जीवादि तत्त्वों के विषय में कहा है, उसका अभ्यास करने का प्रयत्न करता रहता है।

जीवादि तत्त्वों के स्वरूप के विषय में जिसे निश्चयात्मक ज्ञान होता है, वह अपने परिणामों की रक्षा करना जानता है। सच्चा शिक्षित व्यक्ति स्वयं को पहचानता है। वह किस भाव में वर्तमान में है, यह वह जान सकता है। अविरति आदि के कारणों से आत्मा में कैसे-कैसे परिणाम प्रकट होते हैं, इसका वर्णन जब चलता है तो वह प्रसन्न होता है कि ज्ञानी मेरे अंतर तक पहुंच गए हैं। अविरति का जोर क्या करता है? कषायों का जोर क्या करता है; इत्यादि सम्बन्धी ज्ञानियों की कथित बातें उसके अनुभवगम्य बनती हैं।

ज्ञान अपने स्वरूप को वास्तविक रूप में पहचान कराने वाला होता है। जिसका ज्ञान सच्चा होता है, वह सर्वप्रथम स्वयं को पहचानता है। अपनी बीमारी का सर्वप्रथम पता किसको चलता है? स्वयं को या दूसरों को? ज्ञान कम हो तो अपने रोग के प्रकारादि को नहीं जाना जा सकता है, परन्तु रोग के असर को तो वह स्वयं ही जान सकता है न?

ज्ञान अपने दोषों और अपने गुणों को जानने के लिए तथा अपने दोषों को हटाने और गुणों को प्रकट करने के लिए है। आज अधिकांश को तत्त्वों का ज्ञान नहीं है। जो शिक्षित हैं, वे भी अपने ज्ञान का उपयोग दूसरों के दोषों को ढूंढने में करते हैं, अपने दोषों को देखने के लिए नहीं। अपने दोषों को देखने का मन नहीं होता, दूसरों के दोषों को देखने का मन हो जाता है। इसे क्या माना जाए? शिक्षित या अशिक्षित-दोनों ही अपने दोषों को देखने के बजाय दूसरों के दोषों को ही क्यों देखते हैं? यह मिथ्यात्व का लक्षण है।

सम्यक्त्वी अंतर्मुखी होता है, मिथ्यात्वी बहिर्मुखी होता है, वह पर में देखता है, स्व में नहीं झांकता। इसीलिए न कि मिथ्यात्व और अज्ञान अन्दर बैठे हुए हैं? अन्यथा तो ज्ञान स्वयं को, स्वयं के स्वरूप को जानने के लिए ही होता है, स्वयं के दोषों को जानकर उनके निस्तार के प्रयास करने के लिए, अपनी आत्मा को उज्ज्वल बनाने के लिए ज्ञान होता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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