सुर-दुर्लभ इस मानव जीवन को सार्थक करने के लिए कोई
आत्मा संयम मार्ग पर आरूढ होकर आत्म-कल्याण करना चाहे तो उसे प्रोत्साहन देकर, उसके इस कार्य में सहायक बनने वाला
भी कितना पुण्यशाली होता है कि वह केवल अपना संसार ही सीमित नहीं करता, बल्कि तीर्थंकर नामकर्म तक का
पुण्य उपार्जित कर सकता हैं, किन्तु
इसके विपरीत आज दीक्षार्थी की दीक्षा लेने में सहायता करना तो दूर रहा, उनके मार्ग में काँटे बिखेरने वाले
बहुत हैं। ऐसे ही लोग साधु समाज को सताने, वैरागियों के परिवारों को भडकाने, समाज में झगडे पैदा करवाने और
हमारी पावन संस्कृति को क्षति पहुंचाने का षडयंत्र भी करते हैं।
लेकिन, दुःख और अफसोस की बात यह है कि ऐसे लोगों को भी अपने निकट बिठाने में समझदारी
मानने वाले साधु ही नहीं, अपितु
स्वयं को महान् धर्माचार्य मनवाने का प्रयत्न करने वाले भी हैं। यह उनका प्रभु के
शासन के खिलाफ मिलाजुला गठजोड है, इसमें
कहीं अहंकार है तो कहीं ईर्ष्या और कहीं अति संकीर्ण मानसिकता। आज स्वयं को
सर्वमान्य बनाने के मोह में पडकर शास्त्र की दृष्टि से जिनका मुँह तक देखना पाप है, उन्हें बात-बात में आगे लाना चाहते
हैं। शासन के हित को ध्यान में रखकर उन्हें समाज के समक्ष लाने और उनकी पोल खोलने
वाले पुण्य-पुरुषों को झगडालू अथवा अशान्ति-प्रिय बताने में अपना सम्मान समझते
हैं। यह कितनी दुर्भाग्यपूर्ण और अफसोसजनक बात है।
उन व्यक्तियों को यह कहना पडता है कि स्वयं की
प्रभावना भूले बिना आप कदापि शासन की प्रभावना नहीं कर सकेंगे। शासन प्रभावना के
नाम पर स्वयं की प्रभावना करने में तल्लीन होना, यह प्रभु-शासन का घोर द्रोह है। शासन के प्रभाव से
प्राप्त बडप्पन एवं ख्याति का उपयोग स्वयं की प्रभावना में करने के समान नीचता कोई
नहीं है। जिस शासन के कारण उच्च स्थान प्राप्त हुआ हो, उसी शासन के द्रोहियों को उन द्रोहियों की ओर से अपने
को मान-सम्मान प्राप्त हो, इसलिए
उनका पोषण करना भी जिन-शासन का महान् द्रोह है।
प्रभु शासन के मर्म को अच्छी तरह जानने की डींग मारकर
खोटा और सच्चा स्पष्ट दिखाई देवे वैसे पक्षों में भी मध्यस्थ होने का कपट या
आडम्बर करना, यह भद्रिक जनता के धर्म-धन को लुटाने का निकृष्ट धंधा करके
विश्वासघात का महान् पाप करने तुल्य है। यह बात उन्हें कटु लगेगी अथवा मधुर लगेगी, उसका विचार हमें नहीं करना है, क्योंकि उपकार-भावना से कटु,
परन्तु हितकर बात कहने की परम् पुरुषों की हमें आज्ञा है और भारी से भारी जोखिम
उठाकर भी यदि हममें शक्ति हो तो उन परम् पुरुषों की उस परम् तारणहार आज्ञा का पालन
करना अपना अनिवार्य एवं आवश्यक कर्तव्य है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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