आज वेशधारी वंचक लाखों रुपयों का व्यय उन्मार्ग की
पुष्टि में करवा रहे हैं। अधर्म में भी धर्म मनवा कर वेशधारी वंचक उदार एवं विवेकी
श्रावकों के धन का भी पानी करवा रहे हैं। जो क्षेत्र आज अभावग्रस्त हैं और जिन
सुक्षेत्रों की पुष्टि एवं वृद्धि के लिए आज बहुत कुछ करने की जरूरत है, उन सुक्षेत्रों की ओर वेशधारी वंचक
उदार श्रावकों के हृदय में अरुचि उत्पन्न कर रहे हैं और अपनी ख्याति आदि के लिए
धर्म के नाम पर कितना ही धन व्यय करवा रहे हैं। इस प्रकार भी श्री जैन शासन पर
आक्रमण करने वाले पुष्ट बनें और बढें, उन वेशधारी वंचकों की जय-जयकार होती रहे, ऐसा भी आज बहुत-बहुत हो रहा है। यह कतई उचित नहीं है।
धन का व्यय करने वाला यदि धर्म के, शासन के लिए समर्पण की भावना से अनुप्रेरित होकर कर रहा है तो यह उसकी भावनाओं
का शोषण है, इसमें
शासन की हानि है।
सोचो कि वेशधारी वंचक किस प्रकार इस शासन को हानि
पहुंचाने वाले हैं और आराधना के कार्य में विक्षेप डालने वाले हैं। भगवान की
अनुपस्थिति में रक्षक तो वे ही हैं न? वे रक्षक मिटकर भक्षक बनें तब भयानक अनर्थ मचेगा, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। ऐसा समय भी आ जाए
कि सुसाधुओं को भीतर ही भीतर जलते रहना पडे। शासन का भयानक अहित हो रहा हो, उसे देख तो सके नहीं और वेशधारी
वंचकों ने वातावरण ऐसा बना दिया हो कि बोलना भी कठिन हो जाए। उस दुःख के कारण
अन्तर में ही जलता रहना पडे अथवा अन्य कुछ हो?
सहस्रावधानी, समर्थ महापुरुष, आचार्य भगवान् श्री मुनिसुन्दरसूरिश्वर जी महाराजा को
कहना पडा है कि ‘कोतवाल
के वेश में बहुत चोर घूमते हैं, वहां
क्या हो? राजा-विहिन राज्य जैसी
इस शासन की दशा हो गई है’।
भगवान श्री महावीर परमात्मा को सम्बाधित करके उन महापुरुषों ने श्री
अध्यात्म-कल्पद्रुम के देव-गुरु-धर्मशुद्धि नामक बारहवें अधिकार में बताया है कि, ‘हे वीर! मुक्ति-मार्ग के वाहक के
रूप में आप द्वारा स्थापित शासन में, इस कलियुग में बहुत लुटेरे उत्पन्न हुए हैं, जो यति नाम धारण करके भी भोले मनुष्यों की पुण्य रूपी
लक्ष्मी को लूट रहे हैं। राजा रहित राज्य में क्या कोतवाल चोर नहीं होते हैं?’
ऐसे शब्दों का उच्चारण कब हुआ होगा? शासन में साधु कोतवालों के स्थान
पर हैं, परन्तु उन कोतवालों में
से बहुत से चोर बन गए हैं। और जहां कोतवालों के रूप में नियुक्त व्यक्तियों में से
ही अधिकांश व्यक्ति चोर बन जाएं तो फिर शेष बचे कुछ प्रामाणिक, वफादार, सत्वशील कोतवालों को भी घबराहट हो जाए तो आश्चर्य की
बात नहीं है। कोतवालों के वेश में चोर बने साधुओं से शासन श्रेष्ठ कैसे रह सकता है? जो पुण्यात्मा चकोर बनकर विराधना
से बचेंगे और आराधना में तत्पर बनेंगे, वे इस काल में भी अपना कल्याण सर्वोत्तम प्रकार से कर सकेंगे, बाकी तो जिसका जैसा भाग्य! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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