इस संसार में पुरुषार्थ चार हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इन चार पुरुषार्थों में सबसे पहला
स्थान धर्म का है। धर्म से ही अर्थ, काम या मोक्ष की प्राप्ति होती है। यों करने जैसा पुरुषार्थ एक ही है, धर्म। सवाल यह है कि आप धर्म किस
अपेक्षा से कर रहे हैं? अर्थ
की प्राप्ति के लिए, काम
की प्राप्ति के लिए या मोक्ष प्राप्ति के लिए?
कदाचित आप धर्म नहीं कर रहे हैं, तब आपको जो अर्थ और काम की शक्ति
प्राप्त है, वह
पूर्व जन्मों के अर्जित पुण्य के फलस्वरूप है और उसी अर्थ व काम को बढाने के लिए
ही पुरुषार्थ है तो उसकी प्राप्ति की सीमा वहीं तक है, जहां तक आपका पूर्व कृत पुण्य शेष है, जिस दिन आपका पुण्य का खाता पूरा
हो गया, सारा खेल खत्म और फिर महादुःख
का प्रारम्भ तय है। लेकिन, यदि
आप धर्म भी साथ-साथ कर रहे हैं, तब
यह सवाल खडा होगा कि यह धर्म आप किस अपेक्षा से कर रहे हैं? अर्थ, काम, मोक्ष
की अपेक्षा से अथवा निर्पेक्ष भाव से?
यहां शास्त्रकार कहते हैं कि अर्थ, काम आदि लौकिक सुखों की प्राप्ति
के लिए या देवगति और स्वर्गीय सुख प्राप्ति की कामना से किए गए धर्म से भी पुण्य
तो अर्जित होता है, लेकिन
यह पुण्य पापानुबंधी पुण्य है। इस पापानुबंधी पुण्य से कदाचित् आपको अर्थ, काम या देवगति तो प्राप्त हो
जाएंगे, लेकिन जुगनू की चमक की
तरह। पहले चमक और फिर अंधेरा ही अंधेरा। पहले सुखाभास और फिर महादुःख! यह विष
मिश्रित दूध की तरह है, जिसमें
मिश्री और बादाम आदि हैं और पीने में स्वादिष्ट लगता है, किन्तु विष का प्रभाव होते ही महावेदना और मौत होती
है।
अर्थ-काम अनर्थकारी हैं, अर्थ-काम के लिए धर्म नहीं होता, धर्म तो मोक्ष का साधन है। सच्चा
साध्य केवल मोक्ष है। मोक्ष की भावना से या निराशंस भाव से धर्म करने का ही ज्ञानी
विधान करते हैं। पढ-लिख कर पोपट बनना भिन्न बात है और उसके भीतर के गूढ रहस्य को
समझने की शक्ति आना भिन्न बात है।
जिस धर्म को करने से अक्षयसुख, अक्षयशान्ति और अक्षयआनंद की
प्राप्ति संभव है, उसी
धर्म से तुच्छ संसारी वैभव की कामना करना तो हीन मनोवृत्ति ही है। मोक्ष हेतु
निराशंस-भाव से किए गए धर्म के योग से पुण्यानुबंधी पुण्य होता है और इसके प्रभाव
से मोक्ष प्राप्ति के पूर्व उत्तम प्रकार की सामग्री तो वैसे ही प्राप्त हो जाए, यह बात भिन्न है। लेकिन, मोक्ष प्राप्ति की लालसा वाला
आत्मा ऐसी भौतिक सुख-सामग्री में रमता नहीं है।
संसार में सर्वोत्तम प्रकार की विषय-सामग्री
धर्मात्मा व्यक्ति को ही प्राप्त होती है, परन्तु इस बात का रहस्य समझने के लिए आत्मा में विवेक
चाहिए। -आचार्य श्री
विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें