पंच परमेष्ठियों में आचार्य तीसरे पद पर, उपाध्याय चौथे और साधु पांचवें पद
पर आराध्य हैं। आचार्य आदि आराधक भी हैं और आराध्य भी हैं। उस-उस पद की उनमें
जितनी-जितनी योग्यता हो, उतने-उतने
अंश में वे आराध्य हैं। आचार्य आदि की आराधना का आधार भी वे स्वयं जिस पद पर स्थित
हैं, उस पद के वे कितने
वफादार हैं, उस
पर निर्भर है। श्री पंचपरमेष्ठी पद वेश अथवा ग्राह्य आडम्बर के ही कारण नहीं है, अपितु मुख्यतः गुणों के आधार पर
है। श्री आचार्य पद, श्री
उपाध्याय पद अथवा श्री साधु पद, ऐसे
पद हैं कि उन पदों पर गिने जाने वाली आत्माओं की जोखिम बहुत अधिक बढ जाती है। वे
तो शासन के वर्तमान संसार में आधारभूत भी गिने जाते हैं।
प्रत्येक आचार्य, उपाध्याय एवं साधु को अच्छी तरह ध्यान में रखना चाहिए
कि हम अपने-अपने पद को अधिक उज्ज्वल न कर सकते हों तो भी कम से कम अपने कारण उस पद
पर लांछन तो नहीं ही लगना चाहिए। उस पद पर गिना जाना, उस पद पर पूजा जाना और उस पद के उत्तरदायित्व से
विमुख रहना, इसका
अर्थ तो यही होता है कि ‘स्वयं
डूबना और अपने विश्वास में जो कोई हो उसे डुबाना।’ शक्ति-सामग्री आदि की जैसी चाहिए वैसी अनुकूलता न हो
तो आराधना कम कर सकते हैं, अवसरोचित
समस्त क्रिया न भी कर सकें, शासन
के लिए जो कुछ करने योग्य हो, उसमें
थोडा कर सकें अथवा न भी कर सकें, परन्तु
हृदय में से आराधक-भाव मिटना नहीं चाहिए और विराधक-भाव आना नहीं चाहिए।
शक्ति-सामग्री के अभाव में आवश्यक आराधना कदाचित न भी हो सके, फिर भी आत्मा में यदि आराधक-भाव हो
तो उससे भी आत्मा को बहुत लाभ होता है, और आराधना की ग्राह्य क्रिया चल रही हो तथा विराधना की दिखती क्रिया न भी करते
हों, फिर भी यदि आत्मा में
विराधक-भाव आ जाए तो वह आत्मा को बर्बाद कर डालता है।
जिन आज्ञा की आराधना ही प्रत्येक आचार्य, उपाध्याय एवं साधु का ध्येय होना
चाहिए और वह ध्येय हो तो ही वे स्व-पर का उपकार कर सकते हैं और शासन के प्रभाव का
विस्तार कर सकते हैं। जिस आचार्य, उपाध्याय
एवं साधु का आज्ञा की आराधना ही ध्येय होता है एवं जिनकी प्रवृत्ति इस ध्येय की
साधक होती है, वे
आचार्य, उपाध्याय और साधु इस
शासन के कल्पतरु हैं। परन्तु, जिन
आचार्य, उपाध्याय एवं साधु का
ध्येय तथा प्रवृत्ति इससे विपरीत होती है, वे इस शासन में कंटक-तरु हैं। आचार्य श्री आचार्य पद
से विपरीत व्यवहार करें, उपाध्याय
श्री अपने पद से विपरीत व्यवहार करें और साधु अपने पद से विपरीत व्यवहार करें, तो वे देखने में आचार्य, उपाध्याय अथवा साधु होने पर भी
शासन को कुरेद कर खाने वाले कीडों का ही कार्य करते हैं। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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