सत्य की गवेषणा करें !
सत्य की गवेषणा कब हो सकती है? क्या आपको आपकी दशा से प्रतीत होता
है कि ‘आप सत्य के अर्थी हैं’? संसार के प्रति रोष और मोक्ष के
प्रति गाढ राग रखे बिना क्या पारमार्थिक सत्य प्राप्त हो सकता है? नहीं प्राप्त हो सकता है, क्योंकि जो अर्थ एवं काम के रसिक
हैं, जो अर्थ एवं काम में
अपना कल्याण मानते हैं और इसके लिए धर्म को भी ताक में रख देते हैं, जो संसार की सुरक्षा और वृद्धि के
लिए ही उत्सुक हैं, जो
अवकाश मिलने पर जैसे भी देव-गुरु मिल जाएं उन गुरु की इच्छानुसार सेवा करने से
अधिक कुछ करने के लिए तत्पर नहीं हैं, वे सत्य की गवेषणा नहीं कर सकते हैं।
सत्य की गवेषणा करनी हो तो पुद्गल की ओर से दृष्टि
हटनी चाहिए और आत्म-कल्याण की ओर दृष्टि जमनी चाहिए। आत्म-कल्याण करना है, ऐसा आपका ध्येय बन जाना चाहिए और
उसके लिए मोक्षार्थी बनना चाहिए। आप यदि मोक्षार्थी बन जाओ तो आपके लिए सत्य की
गवेषणा अत्यंत सरल हो जाए। आत्मा को डूबने से बचाए, पुद्गल की ओर जाने से रोके और आत्मा के गुणों को
विकसित करने की प्रेरणा दे, ऐसे
चारित्रवान सुगुरुओं की शरण प्राप्त कर आत्मा इस काल में भी मोक्षमार्ग की शक्ति
अनुसार आराधना कर सकते हैं। ऐसे चारित्रवान सुगुरु अल्प मात्रा में ही सही, लेकिन आज भी हैं और इस काल के अंत
तक रहेंगे, बात
सिर्फ उन्हें पहचानने की है और कुगुरुओं से बचने की है।
केवल काल की महिमा यही है कि वंचक भी अधिक उत्पन्न
होंगे। जिस शासन के नाम पर मौज करते हैं, जिस शासन के नाम पर मान-सम्मान का उपभोग करते हैं, जिस शासन के नाम पर लोगों में पूजे जाते हैं और जिस
शासन के नाम पर संसार में गुरु बने घूमते हैं; उसी शासन के लिए वे वंचक शत्रु का कार्य करेंगे।
जिनकी ओर से शासन की प्रभावना की आशा कर सकते हैं, वे ही शासन की बदनामी करेंगे और शासन की बदनामी के
कारणभूत होते हुए भी, शासन
के प्रति वफादार निर्दोष एवं पवित्र मुनियों पर झूठे कलंक लगाएंगे।
यद्यपि शासन समर्पित साधुओं को वस्तुतः व्यक्तिगत
आक्रमणों की परवाह नहीं होती, परन्तु
उन वंचक वेशधारियों के पाप से कतिपय आत्मा सन्मार्ग से च्युत हो जाएंगे और वे
उन्मार्ग पर बढ जाएंगे। ऐसे समय में कल्याणार्थियों को तो अधिकाधिक सावधान होना
चाहिए। अशक्ति के कारण आराधना कम-अधिक हो उसकी वैसी चिन्ता नहीं है, परन्तु आराधना के मार्ग से भ्रष्ट
न हो जाए, इसकी तो पूर्ण सावधानी
रखनी चाहिए। जहां तक हो सके वहां तक आराधना अधिक करने की भावना तो सम्यग्दृष्टि की
होती ही है, परन्तु
किसी वंचक के जाल में फंसकर मार्ग न चूक जाए, यह विशेष संभालने योग्य है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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