वर्तमान में प्रतिदिन धर्म-क्रिया करने वालों में भी बहुत कम ऐसे निकलेंगे जो
यह पूछने पर कि मिथ्यात्व किसे कहते हैं और सम्यक्त्व किसे कहते हैं? इसका
समझपूर्वक उचित उत्तर दे सकें। अधिक से अधिक वे कह देंगे कि ‘कुदेव, कुगुरु
और कुधर्म का त्याग तथा सुदेव, सुगुरु और सुधर्म का स्वीकार सम्यक्त्व है
और इससे विपरीत मिथ्यात्व है।’ यह व्याख्या भी ठीक है, असत्य
नहीं है, सच्ची है;
परन्तु विचारणीय यह है कि ‘इसके पीछे जो विवेक
(समझ) होना चाहिए,
वह है या नहीं?’ इस व्याख्या में सब समाविष्ट
हो जाता है, परन्तु देव को ‘कु’ क्यों कहा जाए और ‘सु’ क्यों कहा जाए,
गुरु को ‘कु’ क्यों कहा जाए और ‘सु’ क्यों
कहा जाए तथा धर्म को ‘कु’ क्यों कहा जाए और ‘सु’ क्यों कहा जाए,
इस विषय को समझने का प्रयत्न कितना किया? ‘सु’ और ‘कु’ का
क्या अभिप्राय है?
इसकी हमारी समझ कितनी?
कुलाचार मात्र से आपने कुदेवादि का त्याग किया है या विवेक पूर्वक त्याग किया
है? और सुदेवादि की आप सेवा करते हैं, तो क्या कुलाचार से करते हैं
या समझ पूर्वक?
केवल कुलाचार से ही कुदेवादि को छोडता हो और सुदेवादि की
सेवा करता हो,
इसमें मिथ्यात्व भी हो सकता है, क्या
आप यह जानते हैं?
क्या आपने इतना भी विचार किया है कि मिथ्यात्व की
विद्यमानता आत्मा के परिणामों पर कितना बुरा प्रभाव डालती है और सम्यक्त्व की
विद्यमानता आत्मा के परिणामों पर कितना अच्छा प्रभाव डालती है? मिथ्यात्व
और सम्यक्त्व का वास्तविक और मुख्य प्रभाव तो आत्मा के परिणामों पर होता है।
मिथ्यादृष्टि तामली तापस के महातप की अपेक्षा भी सम्यग्दृष्टि आत्मा का केवल
नवकारशी का तप भी अधिक फलदायी होता है, यह जब आपने सुना, तब
विचार तो किया होगा न कि इसका कारण क्या है? आत्मा के परिणामों पर
मिथ्यात्व का ऐसा क्या प्रभाव पडता है, जिसके कारण तामली तापस के
महातप का ज्ञानीजन मूल्यांकन नहीं करते और सम्यक्त्व का आत्मा
के परिणामों पर ऐसा क्या प्रभाव पडता है, जिससे सम्यग्दृष्टि की एक
नवकारशी मात्र तप का भी ज्ञानीजन मूल्यांकन करते हैं? मिथ्यात्व
को हटाना हो और सम्यक्त्व को प्रकट करना हो, तो ऐसी बातों पर अवश्य विचार
करना चाहिए।
जिसमें संसार से छूटने की और मोक्ष को पाने की अभिलाषा ही न हो, उसमें
तो सम्यक्त्व हो ही नहीं सकता। परन्तु जिसमें संसार से छूटने की और मोक्ष को पाने
की अभिलाषा प्रकट हुई है,
ऐसे जीवों में भी सम्यक्त्व न हो, यह
संभव है। मोक्ष की रुचिवाले जीव सम्यक्त्व पाएंगे ही, यह
निश्चित है, परन्तु सम्यक्त्व मोक्ष की रुचिमात्र से ही पैदा होने वाली वस्तु नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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