आजकल व्याख्यान में जो श्रोताजन आते हैं, वे या तो लिए गए नियम का पालन
करने अथवा गतानुगतिकता के कारण अथवा कथाएं सुनने के लिए आते हैं; परन्तु
तत्त्वज्ञान के अभिलाषी के रूप में कितने श्रोता आते हैं? तत्त्वज्ञान
के अभिलाषी श्रोता घट गए हैं, इसलिए व्याख्यान के पाट पर चाहे जो बैठ
जाता है या चाहे जिसे बिठा दिया जाता है।
दो-चार ग्रंथ देख लिए,
पांच-पचास कथाएं याद कर लीं, थोडे श्लोक कंठस्थ कर
लिए, अखबारों में आने वाली घटनाएं पढ लीं और थोडे-बहुत उदाहरण ढूंढ लिए; इतना
ज्ञान हो और थोडी वाचालता हो तो आज के श्रोताजन पाट पर बैठने वालों को ऐसा
प्रमाण-पत्र दे देते हैं कि ‘क्या महाराज का व्याख्यान है! कैसी अनुपम
छटा है? श्लोकों का उच्चारण कितना सुंदर करते हैं? कथाओं में कैसा रस भर देते
हैं? व्याख्यान तो गजब का है?’ परन्तु, क्या कोई तत्त्वज्ञान
का भूखा श्रोता मिलता है जो यह पूछे कि ‘महाराज! इसमें तत्त्वज्ञान
क्या आया?’
श्रोताजन यदि तत्त्वज्ञान के अभिलाषी होते तो चाहे जो साधु पाट पर नहीं बैठता
और पाट पर बैठने वाला तत्त्वज्ञानी बने बिना नहीं रहता। श्रोता तत्त्वज्ञान का
अर्थी हो तो वह ऐसे प्रश्न पूछेगा, जिनका उत्तर देना अज्ञानी
व्याख्याता को भारी पड जाए। जब आगम का वाचन चलता हो, तब जानकार श्रोता तो
सूक्ष्म से सूक्ष्म विषयों के सम्बन्ध में भी प्रश्न करता है। प्रतिदिन का श्रोता
बहुश्रुत है,
ऐसा उसकी बात से मालूम होना चाहिए। वह प्रसंग से कह सकता है
कि ‘मैंने इतने आचार्य महाराज को और इतने आगमों को सुना है।’ उसे
बहुत-सी बातें याद होती हैं, क्योंकि सुनी हुई बात पर वह प्रतिदिन
विचार करता है। पहले के जमाने में जब अन्य लोग कथा करने बैठते तो वे देख लेते कि
सभा में कोई आर्हत (जैन) है या नहीं? क्योंकि, उन्हें
यह आशंका रहती थी कि वह कोई कठिन और बुद्धिमत्तापूर्ण प्रश्न कर बैठेगा। आर्हत
तत्त्वज्ञ होते थे,
अतः उनकी ऐसी प्रतिष्ठा थी।
जिसे ज्ञान ही नहीं,
वह क्या प्रश्न करेगा? व्याख्यान किसलिए हैं? तत्त्वज्ञान
कराने के लिए! तत्त्वज्ञान भी दूसरों के लिए नहीं, अपितु स्वयं के लिए भी
है। कथा में भी तत्त्वज्ञान आता है। कोई भी धर्मकथा धर्म के हेतु बिना नहीं लिखी
गई है। प्रत्येक कथा से धर्म का प्रयोजन पूर्ण हो, इसी रीति से उसे पढना
या सुनना चाहिए। जहां श्रावक तत्त्वज्ञ होते हैं, वहां उन्मार्गदर्शक
चुप हो जाते हैं। आजकल तो अधिकांश श्रावक तत्त्वज्ञान से शून्य बन गए हैं; इससे
भी शासन की बहुत हानि हुई है। ज्ञान आत्मा का गुण है। इस गुण के अभाव में या इस
गुण को प्राप्त करने के प्रति उपेक्षा के बावजूद मन में सुख की कल्पना आए तो विचार
करिए कि सुख आएगा कहां से? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें