घर-परिवार में किसी की मृत्यु पर रोना, विलाप करना और मरने वाला
पुरुष है तो उसकी पत्नी को कोने में बिठाना तथा शोकाकुल परिवार का देव-दर्शन या
धर्म-श्रवण निषेध करना,
यह शास्त्र-विरूद्ध है, धर्म विरूद्ध है। मरण का
प्रसंग भी वैराग्य का प्रवेश द्वार बन जाए, ऐसी दशा होनी चाहिए। मोह को
बढाने वाली प्रथा को दूर करो। मोह के नाटक घटे तो धर्म बढेगा। कोने में बैठने की
प्रथा और मन्दिर,
उपाश्रय जाने का बंद करना, यह कलंक रूप है।
विषय-कषाय में लीन आत्मा को ऐसा खयाल न आए यह संभव है, किन्तु
विवेक दशा अन्दर होती तो प्रायः मरण के समय यह खयाल अवश्य आता। उस समय अच्छी
सामग्री मिल जाए और अन्तर में सच्चे संस्कार डालने वाले मिल जाएं तो बहुत लाभ हो
जाए। शोक, दुःख और आपत्ति के प्रसंग भी विवेकी लोगों के लिए वैराग्य की उत्पत्ति का कारण
हैं, दुःखी के साथ समझदार मनुष्य रोने नहीं बैठते हैं। इस संसार में मरना, जन्म
लेना, दुःख आना यह कोई नई बात नहीं है। इस अवसर में तो धर्म में चित्त अधिक लगाना
चाहिए। जिससे कि दुर्ध्यान से बचाव हो सके। जो जन्मेगा वह मरेगा, यह
निश्चित है। इस विपत्ति से धर्म क्रिया बंद हो, यह उचित नहीं।-सूरिरामचन्द्र
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