गरीब कहते हैं,
‘खाने की मुसीबत है तो धर्म किस प्रकार किया जाए? धर्म
तो समृद्धिवान् करें।’
श्रीमन्तों में से कई कहते हैं कि ‘हमको
धर्म करने का अवकाश नहीं है। धर्म को बेकार आदमी ही करे।’ अर्थात्
समान योग है। समृद्धि के समय कोई ज्ञानी समझदार आदमी ही धर्म करता है, लेकिन, दुःख
में तो धर्म करने के पर्याप्त प्रेरणात्मक कारण भी हैं। फिर भी आज तो कतिपय स्वेच्छाचारी पापात्माओं ने ऐसी हवा फैलाई है कि ‘जब
तक खाने को रोटी न मिले,
तब तक नवकार कहां से गिना जाए?’ ‘भूखे
भजन न होई गोपाला।’
कुछ वर्ष पहले तक चाहे जैसे दुःखी के मुँह से भी ऐसे शब्द
नहीं निकलते थे। अरे! ऐसी स्थिति हो कि लडका पेट भरने लायक भी न कमाता हो, मां
मजदूरी करती हो और बहिन भी बाहर का काम करती हो, तब तीनों जनें रोटी खाएं, तो
भी ऐसे मुश्किल के समय ‘धर्म नहीं होता’,
ऐसा नहीं बोलते थे। आज के स्वच्छन्दी धर्महीन तो खुलेआम यह
लिखते-बोलते हैं कि ‘पेट में खाने की मुसीबत हो तो धर्म कहां से होगा?’ धर्म
की उपादेयता समझने वाले तो रोटी मिलने की मुसीबत में भी समय बचाकर धर्म करते हैं।
स्वयं की मुसीबत को पूर्वकृत पापोदय समझते हैं। सच तो यह है कि आज पेट के भूख की
अपेक्षा मन की भूख बढ गई है। मौज-मजा चाहिए, व्यसनों की आधीनता चाहिए।
धर्म करना नहीं है और धर्म तथा धर्मी की निन्दा करने के लिए रोटी का बहाना आगे
रखते हैं।-सूरिरामचन्द्र
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