संसार का यश तो तुच्छ वस्तु है। मिला तो भी क्या और न मिला तो भी क्या? हमें
मान-सम्मान की अभिलाषा ही नहीं रखनी चाहिए। ऐसी तुच्छ वस्तुओं के पीछे आत्मा
बर्बाद न हो जाए,
इसके लिए इस जीवन में अधिकतम आराधना करने के लक्ष्य वाला
बनना चाहिए। हम स्वयं शुद्ध हैं अथवा नहीं, यह अवश्य देखना चाहिए। हम
स्वयं सन्मार्ग पर हैं अथवा नहीं, उसका ध्यान रखने में तनिक भी उपेक्षा नहीं
आने देनी चाहिए। हम सन्मार्ग पर हों, शुद्ध रहने के लिए प्रयत्नशील
हों, केवल स्व-पर कल्याण के आशय से ही कार्य कर रहे हों, फिर
भी गालियां सुननी पडे,
कष्ट सहने पडें, तो उसका सत्कार करें। परिणाम
में एकांत लाभ ही होता है। भक्ष्याभक्ष्य के एवं शील-मर्यादा आदि के उत्तम
आचार-विचार दिन-प्रतिदिन खत्म होते जा रहे हैं। अभक्ष्य व अनंत काय का उपयोग अधिक
होता जा रहा है। अभक्ष्य एवं अनंत काय का उपयोग उच्च कुलों में नहीं होना चाहिए, ऐसी-ऐसी
बातें कोई करे तो उसकी भी मजाक की जाती है। शील-मर्यादा-विषयक उत्तम आचार छोडने के
विरूद्ध हित शिक्षा दी जाए तो उन्हें यह कहने में भी लज्जा नहीं आती कि ‘इन्हें
जमाने का होंश नहीं है’। सभी लोग ऐसे हो गए हों, यह बात नहीं है। कतिपय कुलों में अभी भी
उत्तम आचार-विचार कायम हैं,
परन्तु ऐसा अत्यंत अल्प प्रमाण में है। जडवाद की हवा का वेग
इतने प्रमाण में है कि यदि उसके समक्ष सचेत न रह सके तो आत्महित का नाश हुए बिना
नहीं रहेगा।-सूरिरामचन्द्र
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