स्वयं को सर्वमान्य बनाने के मोह में पडकर शास्त्र की दृष्टि से जिनका मुँह तक देखना पाप हो,
उन्हें बात-बात में आगे लाना, शासन के हित को ध्यान
में रखकर उन्हें समाज के समक्ष लाने और उनकी पोल खोलने वाले पुण्य-पुरुषों को
झगडालू अथवा अशान्ति-प्रिय बताने में अपना सम्मान समझना; यह
कितनी दुर्भाग्यपूर्ण और अफसोसजनक बात है। ऐसे व्यक्तियों को कहना पडता है कि
स्वयं की प्रभावना भूले बिना आप कदापि शासन की प्रभावना नहीं कर सकेंगे। शासन प्रभावना
के नाम पर स्वयं की प्रभावना करने में तल्लीन होना, यह प्रभु-शासन का घोर
द्रोह है। शासन के प्रभाव से प्राप्त बडप्पन एवं ख्याति का उपयोग स्वयं की
प्रभावना में करने के समान नीचता कोई नहीं है। जिस शासन के कारण उच्च स्थान
प्राप्त हुआ हो,
उसी शासन के द्रोहियों का स्वार्थ के लिए पोषण करना भी
जिन-शासन का महान् द्रोह है।
प्रभु शासन के मर्म को अच्छी तरह जानने की डींग मारकर खोटा और सच्चा स्पष्ट
दिखाई देवे, वैसे पक्षों में भी मध्यस्थ होने का कपट या आडम्बर करना, यह भद्रिक
जनता के धर्म-धन को लुटाने का निकृष्ट धंधा करके विश्वासघात का महान् पाप करने के
तुल्य है। यह बात उन्हें कटु लगेगी अथवा मधुर लगेगी, उसका विचार हमें नहीं
करना है, क्योंकि उपकार-भावना से कटु, परन्तु हितकर बात कहने की परम् पुरुषों की
हमें आज्ञा है और भारी से भारी जोखिम उठाकर भी यदि हममें शक्ति हो तो उन परम्
पुरुषों की तारणहार आज्ञा का पालन करना अपना आवश्यक कर्तव्य है।-सूरिरामचन्द्र
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