आर्यजाति एवं आर्यकुलों में से परलोक का ध्यान तक लुप्त हो जाना क्या
आध्यात्मिक दृष्टि से साधारण क्षति है? आर्य यदि अपने आर्यत्व को
समक्ष रखकर इस बात पर विचार करें तो वे स्वयं ही अपनी निर्घृण दशा से अवश्य ही
कांप उठेंगे,
परन्तु इस सब का विचार कौन करे? इस
प्रकार के चिन्तन के अभाव से वर्तमान व्यवहार में भी ऐसी कलुषित भावना आई है कि
उसके कारण शान्ति ने निष्कासन अपना लिया है और अशान्ति ने घर बना लिया है। आज
अहिंसा, सत्य, संयम अथवा तप भी वही सच्चे माने जाते हैं, जो वर्तमान विश्व की मांग और
सुविधा के अनुरूप हों। आज अधिकतर जनता को जितनी चिन्ता अपने ऐहिक उदय की है, उसके
करोडवें भाग जितनी चिन्ता भी अपने देव, गुरु अथवा धर्म की नहीं है।
जो लोग देव,
गुरु और धर्म की शास्त्र-निर्दिष्ट आराधना में श्रद्धा नहीं
रखते, वे लोग तो आज इतनी अधिक अधम दशा को पहुंच चुके हैं कि रत्नत्रयी, उसकी
आराधना और उसके आराधकों की निंदा करने में ही अपने दुर्लभ मानव जीवन की सार्थकता
मानते हैं। उनके योग्य नायक भी उन्हें अनायास ही मिल गए हैं, जो सत्य के नाम पर
देव एवं गुरु की आज्ञा से परांगमुख बनकर मति-कल्पना एवं अन्तरध्वनि पर स्थिर होने
एवं शास्त्रों व शास्त्रकारों के प्रति अध्ययन किए बिना ही इच्छानुसार आक्षेप करना
सिखाते हैं, संयम के नाम पर अनंत उपकारियों द्वारा बाँधी हुई सुन्दरतम मर्यादाओं को उलट कर, किसी
प्रकार की रोक-टोक बिना अधमाधम अनाचार सरलता से प्रारम्भ हो सकें, ऐसा
बोध देते हैं। क्या यह सब हमें उत्तेजित नहीं करता, खासकर तब, जब
वे आचार-विचारहीन होकर धर्म कि जड़ें खोदने पर आमादा हों? -सूरिरामचन्द्र
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