बहुत-से ऐसे लोग हैं कि, ‘गुणानुराग’ के नाम से ‘मिथ्यादृष्टि
की प्रशंसा’ कर स्वयं के और दूसरों के भी
सम्यक्त्व को पलीता लगाने का काम आज बडे जोरशोर से कर रहे हैं। दुःख तो यह है कि
इस पाप में कई वेशधारी भी अपने हाथ सेक रहे हैं। बहुतों के गुण ऐसे भी होते हैं कि
जिन्हें देखकर आनंद होता है, परन्तु उन्हें बाहर बतलाए जाएं तो बतलाने
वाले की प्रतिष्ठा को भी धब्बा लगे। चोर का दान, उसकी भी कहीं प्रशंसा
होती है? दान तो अच्छा है,
परन्तु चोर के दान की प्रशंसा करने वाले को भी दुनिया चोर
का साथी समझेगी। दुनिया पूछेगी कि, ‘अगर वह दातार है तो चोर क्यों? जिसमें
दातारवृत्ति हो,
उसमें चोरी करने की वृत्ति क्या संभव है? कहना
ही पडेगा कि,
‘नहीं’। उसी प्रकार क्या वेश्या के सौंदर्य की
प्रशंसा हो सकती है?
सौंदर्य तो गुण है न? वेश्या के सौंदर्य की प्रशंसा
करने वाला सदाचारी या व्यभिचारी? विष्ठा में पडे हुए चंपक के पुष्प को
सुंघा जा सकता है?
हाथ में लिया जा सकता है? इन सब प्रश्नों पर
बहुत-बहुत सोचो,
तो अपने आप समझ में आएगा कि, ‘खराब स्थान में पडे
हुए अच्छे गुण की अनुमोदना की जा सकती है, परंतु बाहर नहीं रखा जा सकता।’ जो
लोग गुणानुराग के नाम से भयंकर मिथ्यामतियों की प्रशंसा करके मिथ्यामत को फैला रहे
हैं, वे घोर उत्पात ही मचा रहे हैं और उस उत्पात के द्वारा अपने सम्यक्त्व को फना
करने के साथ-साथ अन्य के सम्यक्त्व को भी फना करने की ही कार्यवाही कर रहे हैं।
गुणानुराग
के नाम पर उन्मार्ग की पुष्टि
उन्मार्गी में रहे हुए गुण की प्रशंसा से उन्मार्ग की पुष्टि होती है; क्योंकि
उस आकर्षण से दूसरे उसके मार्ग पर जाते हैं। ‘ऐसा व्यक्ति भी उसकी प्रशंसा
करता है’, यों समझकर जनता उसके पीछे घसीटी जाती है। परिणाम स्वरूप अनेक आत्माएं उन्मार्ग
पर चढती हैं,
अतः ‘गुणानुराग के नाम से मिथ्यादृष्टि की
प्रशंसा अवश्य तजने योग्य है।’ गुण यह प्रशंसायोग्य है। यह बात नितांत
सत्य है, परंतु उसमें भी विवेक की अत्यंत ही आवश्यकता है। मिथ्यामतियों की प्रशंसा के
परिणाम से सम्यक्त्व का संहार और मिथ्यात्व की प्राप्ति सहज है। ‘गुण
की प्रशंसा करने में क्या हर्ज है?’ इस प्रकार बोलने वालों के लिए
यह वस्तु अत्यंत ही चिंतनीय है। गुणानुराग के नाम से मिथ्यामत एवं मिथ्यामतियों की
गलत मान्यताओं की मान्यता बढ जाए, ऐसा करना यह बुद्धिमत्ता नहीं है, अपितु
बुद्धिमत्ता का घोर दिवाला है। घर बेचकर उत्सव मनाने जैसा यह धंधा है। ‘गुण
की प्रशंसा’,
यह सद्गुण को प्राप्त और प्रचारित करने के लिए ही उपकारी
पुरुषों ने प्रस्तावित की है। उसका उपयोग सद्गुणों के नाश के लिए करना, यह
सचमुच ही घोर अज्ञानता है।
प्रशंसा
भ्रमित करने वाली न हो
वेश्या को रूपवान कहनी हो तो साथ में कहना पडेगा कि रूपवान तो है, परन्तु
अग्नि की ज्वाला जैसी है। अनेकों को फंसाने वाली है। पैसों के खातिर जात को बेचने
वाली है और निश्चित किए गए पैसे न दे तो उसके प्राण भी लेने वाली है। पूरी बात न
करे और सिर्फ रूप की प्रशंसा करे, वह कैसे चले? उससे
तो अनेक लोग फंसें उसकी जोखिमदारी किसकी? होशियार मनुष्य धोखेबाज हो तो
सिर्फ उसकी होशियारी की प्रशंसा हो सकती है? या साथ में कहना पडे की
सावधान रहना! दान देने वाला तस्करी-चोरी का धंधा करता हो तो उसके दान की बात कहते
समय यह सावधानी दिलाना जरूरी है कि तस्करी और चोरी करना अपराध है। दुल्हे की
प्रशंसा करे,
परंतु ‘रात्रि-अंधा’ हो
यह बात छिपाएं,
कन्या पक्ष कन्या की प्रशंसा करे, परंतु
उसकी शारीरिक त्रुटियां छिपाएं तो कईयों के संसार नष्ट होने के उदाहरण हैं न? वहां
कहें कि, ‘हम तो गुणानुरागी हैं!’
यह चलेगा? इतिहास में विषकन्या की बातें आती हैं। वह
रूप-रंग से सुंदर,
बहुत बुद्धिमान, गुणवान भी अवश्य, परन्तु
स्पर्श करे उसके प्राण जाएं! उसके रूप-रंग की प्रशंसा करें, परंतु
दूसरी बात न करें तो चलेगा?
गुणानुरागी को प्रशंसा करते हुए अत्यन्त विवेक रखना पडता
है।-सूरिरामचन्द्र
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