गुरु
का पद शिक्षक से बहुत ऊंचा है। पाश्चात्य संस्कृति ने गुरु शब्द के अर्थ को नहीं समझा।
गुरु की अपनी मौलिक धारणाएं होती हैं। वह निष्काम भाव से शिष्य रूपी अनघड पत्थर को
तराश कर सुन्दर देव प्रतिमा बना देता है। वर्तमान काल के शिक्षक और गुरु में बहुत अंतर
है। शिक्षक से विद्यार्थी वह सीखता है, जो वह जानता है, क्योंकि
उसने पुस्तक से ही ज्ञान ग्रहण किया होता है, जबकि गुरु से शिष्य
वह सीखता है, जो उनके अंतःकरण में, अनुभूति में समाया होता
है। शिक्षक से केवल आंशिक बौद्धिक जानकारी मिलती है, जबकि गुरु से शिष्य
का हार्दिक अटूट संबंध होता है और वह शिष्य के जीवन का निर्माण करता है। शिक्षक और
विद्यार्थी का संबंध लेन-देन का, सौदेबाजी का होता है, जबकि
गुरु-शिष्य संबंध आत्मा का, प्रेम का होता है और वह शिष्य को
अनंत की ओर ले जाता है, जो ध्रुव है, सत्य
है, उसका ज्ञान गुरु करवाता है। ऐसे ही गुरुओं के लिए राम
चरित मानस में संत तुलसीदास जी ने लिखा है-
जे
गुरु चरण-रेणु सिर धरहिं । ते जनु सकल विभव वस करहीं ।।
जो
शिष्य श्रद्धानत होकर गुरु चरणों की रज को अपने सिर पर धारण करता है, तीनों
लोकों का विपुल वैभव उसके चरणों में लौटता है, उसके वश में हो जाता
है। लेकिन शिष्य का विनयवान होना पहली शर्त है, बिना विनीत भाव के, बिना
विनम्रता के न तो उसे विद्या आ सकती है और न ही उस पर गुरु कृपा हो सकती है।
पुज्जा
जस्स पसीयंति, संबुद्धा पुव्व संथुया ।
पसण्णा लाभइस्संति, विउलं
अट्ठियं सुयं ।। उत्तराध्ययन 1/46
विनीत
शिष्य पर ही गुरु प्रीतमना होते हैं। वे अपनी कृपा की अनंत वर्षा करते हुए शिष्य को
निहाल कर देते हैं, उसे विपुल श्रुतज्ञान का लाभ देते हैं। रत्नत्रयी अर्थात्
सम्यग्ज्ञान, दर्शन व चारित्रमय मोक्षमार्ग प्रदान कर अनंत-अनंत काल
के लिए सुखी बना देते हैं।
जे
आयरिय उवज्झायाणं, सुस्सूसावयणंकरा ।
तेसिं
सिक्खा पवड्ढंति, जलसित्ता इव पायवा ।।
दशवैकालिक 9/2/12
ऐसा
विनीत शिष्य ही गुरुकृपा का श्रेष्ठतम पात्र होता है। जो शिष्य अपने अनुशास्ता आचार्य
और ज्ञानदाता उपाध्याय की आज्ञा का पालन करता है, उनकी सेवा-भक्ति करके
उन्हें प्रसन्न करता है, उसका सम्यग्ज्ञान उसी प्रकार विस्तृत
हो जाता है, जिस प्रकार पानी का सिंचन पाकर वृक्ष विस्तार पाता है।
जस्संतिए
धम्मपयाइं सिक्खे, तस्संतिए वेणइयं पउंजे ।
सक्कारए
सिरसा पंजलीओ, कायग्गिरा भो मणसा य निच्चं ।।
दशवैकालिक 9/1/12
जिस
शिष्य ने सद्गुरु के चरणों में बैठकर धर्म की शिक्षाएं ग्रहण की है, उस
गुरु के प्रति विनय का, नम्रता का व्यवहार करना, मनसा-वाचा-कर्मणा
प्रतिक्षण उनका सम्मान करना, उसका परम् कर्त्तव्य है। अतः
नमोऽस्तु
गुरवे तस्मै, इष्ट देव स्वरुपिणे ।
यस्य
वाक्यामृतं हन्ति, विषं संसार-संज्ञितम् ।।
जिनका
वचन-पीयूष प्राणियों के संसार विष को नष्ट कर उन्हें अमर तत्व का दान करता है, उन
इष्ट देवता स्वरूप सद्गुरु को नमस्कार।
अज्ञानतिमिरान्धस्य, ज्ञानाञ्जनशलाकया
।
चक्षुरुन्मीलितं
येन, तस्मै सद्गुरवे नमः ।।
अज्ञानमय
अंधकार में अन्धे बने प्राणियों के नेत्रों को जिन्होंने ज्ञानांजन शलाका से ऑंज कर
खोल दिया, उन सद्गुरु को मेरा प्रणाम्।
मूकं
करोति वाचालं, पंगुं लंघयते गिरिम् ।
यत्कृपा
तमहं वन्दे, परमानन्दमयम् गुरुम् ।।
जिनकी
कृपा से न केवल अंधों को आँखें ही मिलजाती है, अपितु गूंगों को वाणी
एवं पंगुओं को चलने की (पहाड लाँघने की) शक्ति मिल जाती है, उन
परम् आनंदमय गुरु को मेरा प्रणाम्।
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