यदि आप थोडा-सा भी समझदार बनकर सोचें तो आपको अपनी
वर्तमान स्थिति में तो अत्यंत सरलता से निर्वेद उत्पन्न हो सकता है। सुख मनचाही
वस्तु होने से सुख के समय में निर्वेद उत्पन्न होने जैसा विचार आना थोडा कठिन है, परन्तु दुःख जैसी अनचाही वस्तु के
समय तो निर्वेद उत्पन्न होने जैसा विचार आना अत्यंत सरल होता है। परन्तु भिखारी
जिस तरह केवल एक टुकडा रोटी का प्राप्त करने पर भी प्रसन्न हो जाता है, उसी तरह दुःख अधिक हो और सुख अल्प
एवं तुच्छ हो तो भी उतने से ही प्रसन्न होने वाले अधिक होते हैं।
भिखारी यह नहीं देखता कि उसे एक रोटी के टुकडे के लिए
कितनी अनुनय-विनय करनी पडी है। वह तो केवल इतना ही देखता है कि उसे रोटी का टुकडा
प्राप्त हो गया और उसे प्राप्त कर वह इतनी प्रसन्नता अनुभव करता है कि घडी भर के
लिए तो वह अन्य सभी कष्टों को भूल-सा जाता है। जिसकी संसार के सुखों के संबंध में
ऐसी मनोदशा हो, उसे
निर्वेद उत्पन्न होने जैसा विचार आए भी कैसे?
बाकी तो आप यदि प्राचीन काल के
पुण्यशालियों के सुख का वर्णन सुनो और उनके सुख की आपके वर्तमान सुख से तुलना करो
तो भी आपका अपने सुख का सारा आनंद हवा हो जाए और आपकी इच्छा संसार-सुख त्याग कर
मोक्ष-सुख प्राप्त करने की हो जाए।
ये सब निमित्त हैं,
परन्तु आप में उस प्रकार की
योग्यता हो अथवा आप में ऐसी योग्यता आए तो ही ये निमित्त आपको वैराग्य की ओर
प्रेरित करने वाले और वैराग्य होने पर आपको धर्माराधक बनाने में सहायक सिद्ध
होंगे।
सुख कैसे मिले, दुःख कैसे टले ?
आप दिन भर जो मेहनत-मजदूरी करते हैं, उसका कोई टाइम-टेबल बनाते हैं क्या? आप स्वयं-स्फूर्त सोना, उठना,
खाना,
पीना,
शोच आदि नित्यकर्म करते हैं, क्योंकि यह सब आपके वर्तमान शरीर
की जरूरतें हैं और आत्मा की जरूरत के लिए?
जन्म से लेकर पूरे बचपन और
तरुणावस्था तक माता का मुँह ताकते रहना, जवानी में पत्नी का मुँह ताकते रहना और बुढापे में
लडकों का मुँह ताकते रहना ही है तो फिर आत्मा की तरफ अपनी दृष्टि कब गुमाओगे? बाल्यकाल नासमझी और मूर्खताभरी
क्रीडाओं में बीत जाए, यौवन विषयों की परवशता में बीत जाए और वृद्धत्व कच-कच में
पूरा हो जाए तो आत्मा का साधन किस काल में होगा?
यहां मरे इसका अर्थ सब कुछ समाप्त होना नहीं है और
यहां के नाते-रिश्तेदार या धन-दौलत, साधन-सुविधाएं भी साथ आने वाले नहीं हैं। मरने के बाद आत्मा
अन्य स्थान में जाता है, स्थान-परिवर्तन होता है,
परन्तु कर्म तो बने रहते हैं। कर्म
साथ रहते हैं, तो
दुःख बना रहता है। अतः प्रयत्न यह करना चाहिए कि आत्मा कर्म-रहित बने। यह ध्येय
निश्चित कर लो। इसके बाद छोटी-सी भी धर्मक्रिया आपको सच्चे सुख की सच्ची दिशा में
आगे बढने में सहायक बनेगी।
आज की दुनिया की एक मात्र इच्छा यही है कि सुख मिले
और दुःख टले। प्राणी मात्र की प्रवृत्ति भी सुख पाने की और दुःख टालने की है।
तथापि यह सत्य है कि दुनिया दुःखी है। ऐसा क्यों?
कहना होगा कि मूल में भूल है।
सुख-दुःख की सच्ची समझ ही नहीं है। सच्चे सुख की समझ आ जाए और इसे पाने का ध्येय
निश्चित हो जाए तो सुख मिले बिना न रहे और दुःख टले बिना न रहे।-सूरिरामचन्द्र
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