"वैज्ञानिक युग के नाम
पर आज कोई कानूनविद् बना तो कोई डॉक्टर बना। उनके कपडे तो उजले, किन्तु उनकी कार्यवाही देखो तो बदबू मारते गटर जैसी है। कानून पढा
हुआ गुनाह करता है? कानून पढा हुआ चोरी करता है? कानून पढा हुआ किसी को ठगता है? कानून पढा हुआ सौ के
बिल पर एक और जीरो बढाता है? हिसाब पढा हुआ जमा को उधार और
उधार को जमा करता है? इतिहास पढा हुआ गप्पे लगाता
है? हिसाब-किताब की बहियां दो, जुबान दो, दिल में दूसरा और मुँह पर दूसरा; ऐसी यह 21 वीं सदी? सब ऐसे पैगम्बर? अपराधी को निरपराधी ठहराना यह शिक्षा है? ऐसी शिक्षा, ऐसा विद्या प्रचार यह तो जहर का प्रचार है? पढे इसलिए नीचे नहीं
बैठे, पढे इसलिए चाय, पान, बीडी, सिगरेट बिना नहीं चले। पढे नहीं ये तो भूले हैं। शिक्षा को लजाया
है। ऐसी शिक्षा-संस्थाओं को नहीं निभाया जा सकता। एक नए पैसे का भी दान ऐसी
संस्थाओं को नहीं दिया जाना चाहिए। यह तो पाप का दान है। आपको यह खंजर के घाव जैसा
लगेगा, बहुत कडवा लगेगा; किन्तु सच्ची शिक्षा हो तो
ऐसी दशा हो?पढे-लिखे आज पैसों के लिए भीख मांगते हैं, लोगों की दाढी में हाथ डालते हैं। आज आवाज उठ रही है कि पढे हुए
भीख मांग रहे हैं और इससे शिक्षा के प्रति कई लोगों के मन में तिरस्कार का भाव
जागृत हो रहा है। मैं कहता हूं कि पेट भरने के लिए पढनेवाले तो भूखे मरें,इसमें
नई बात क्या है? विद्या जैसी अनुपम चीज पेट के
लिए खरीदी जाए तो परिणाम यही आएंगे। पेट के लिए विद्या पढनेवालों का पुण्य जागृत
हो तो बात अलग है, नहीं तो कटोरे के लिए ही इस
विद्या को समझना। पहिनने की टोपी में ही चने फांकने के दिन आएंगे, क्योंकि आपने विद्या का अपमान किया है। आज इस बात का अनुभव होता है
और भविष्य में भी होगा।"
"पापक्रिया बढी, उसकी अनुमोदना बढी, उसकी प्रशंसा बढी, परिणाम
स्वरूप दरिद्रता और भिखारीपन आया। जो मांगा वह आया दिखता है और ऐसा ही चलता रहेगा
तो अधिक आनेवाला है। इसमें पुण्यवान को भी शामिल होना पडेगा। पडौस में आग लगती है
तब बगल वाले घर में भी जार लगती है, आँच आती है। पापी के
साथ बसने वाले पुण्यवान को भी आँच लगने ही वाली है। सावधान रहेंगे तो बचेंगे। आपको
सावधान करने के लिए यह मेहनत है।"
आज समाज में संस्कारों की
कितनी कमी होती जा रही है? आजकल के माता-पिता को फुर्सत नहीं है कि वे आधा
घंटा भी अपने बच्चों के पास बैठकर उन्हें धर्म की शिक्षा दें, समझाएं, अच्छे संस्कार दें। वह माता
शत्रु के समान है, जिसने अपने बालक को संस्कारित
नहीं किया। वह पिता वेरी के समान है, जिसने अपने बच्चे को
संस्कार नहीं दिए। आजकल के माता-पिता तो अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा के नाम पर
कान्वेन्ट में डाल देते हैं। आप सोचते हैं कि कान्वेन्ट में पढने जाएगा तो हमारा
बच्चा इन्टेलीजेन्ट (चतुर) बनेगा। पढ-लिखकर होशियार बन जाएगा और बडा आदमी बन
जाएगा। लेकिन, वहां जो शिक्षा परोसी जाती है, उसमें आत्मा कहां है? वहां तो जहर ही जहर
है।
शिक्षा के
नाम पर ठगी
शिक्षा संस्थानों में आज तो "सा विद्या या विमुक्तये" का बोर्ड लगाकर ठगने
का धंधा किया जाता है, क्योंकि आज के शिक्षण में
मुक्ति की तो कोई बात होती ही नहीं है। "सा विद्या या विमुक्तये"का अर्थ तो यह कि जो विद्या मुक्ति का बोध दे, लेकिन आज के स्कूल-कॉलेजों में मुक्ति के शिक्षण का स्थान तो
स्वच्छंदता और विनाशक-विज्ञान ने ले लिया है। सारी पीढी बिगड रही है, यह आप आँखों से देख रहे हैं, फिर भी हम से पूछते
हैं कि ‘शिक्षण
में खराबी क्या है?’ जीवन का निर्माण बाल्यकाल से
प्रारम्भ हो जाता है। बच्चों को हृदय की पवित्रता का मूल्य उतना नहीं बताया जाता, जितना दूसरी चीजों का बताया जाता है। आज शिक्षा में नैतिक अवमूल्यन
की समस्या पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। हृदय की पवित्रता केवल साधुओं के लिए ही
महत्त्वपूर्ण नहीं है, शासकों और परिवार के सदस्यों
के लिए भी बहुत जरूरी है। साधारण व्यक्ति प्रवाह के पीछे चलता है। ‘यथा
राजा तथा प्रजा’ कहावत ही नहीं, यथार्थ है। जब एक व्यक्ति उचित-अनुचित ढंग से सत्ता प्राप्त कर
कथित बडा आदमी बन जाता है, तब दूसरा आदमी भी सोचता है कि
भ्रष्ट तरीके से पैसा कमाकर बडा आदमी बना जा सकता है। सत्ता पर जब धर्म का अंकुश
नहीं रहता, तो वह निरंकुश हो जाती है। सत्ता राष्ट्र की
हो या परिवार की, उस पर से जब-जब धर्म का अंकुश
हटता है, वह उन्मादी हो जाती है। प्रवाह को वही मोड सकता है, जो असाधारण हो, जो सत्ता और अर्थ प्राप्ति के
लिए भ्रष्ट उपायों का सहारा न ले।
शिक्षा-व्यवस्था
को बदलने की जरूरत
शिक्षक का वास्तविक कार्य तो
यह है कि वह भाषा आदि सब सिखाने के साथ बालक को समझदार बनाए और उसमें ऐसी क्षमता
विकसित करे कि वह अपने आप संस्कारी बने। माता-पिता ने यदि योग्य संस्कारों का
सिंचन किया होता तो शिक्षक का आधा कार्य पूर्ण हो गया होता। फिर शिक्षक को केवल
माता-पिता द्वारा प्रदत्त संस्कारों को विकसित करने की ही जिम्मेदारी रहती।
भाषाज्ञान सिखाना यह वस्तुतः ज्ञान-दान नहीं, अपितु ज्ञान के साधन
का दान है। सद्गुण प्राप्ति का और अवगुण त्याग का शिक्षण, यही शिक्षा का साध्य
है। परन्तु, आज तो प्रायः जैसी माता-पिता
की हालत है, वैसी शिक्षक की भी हालत है।
सच्चा शिक्षक मात्र किताबी ज्ञान तक ही सीमित नहीं होता। सच्चा शिक्षक तो
विद्यार्थी में सुसंस्कारों का सिंचन करता है। मात्र किताबी ज्ञान तक सीमित रहने
वाला और विद्यार्थियों के सुसंस्कारों का लक्ष्य नहीं रखने वाला शिक्षक, शिक्षक नहीं, अपितु एक विशिष्ट मजदूर मात्र
है। हमारे सोच को और हमारी बेकार हो चुकी समग्र शिक्षा-व्यवस्था को आज बदलने की
जरूरत है। सब अपना कर्तव्य पालन करें और आने वाले कल को सुसंस्कारी बनाएं।
हम अपने
संस्कारों का विचार करें
आज समाज की कैसी दुर्दशा है? यह गंभीर चिन्तन एवं चिंता का विषय है। पुत्र माता-पिता की आज्ञा
नहीं मानता, भाई-भाई को नहीं मानता, भाई-बहिन के बीच खटास चलती है, देरानी-जेठानी के
झगडे जगजाहिर होते हैं, चोरी, तस्करी, मिलावट, खोटे धंधे, खान-पान सब में तथाकथित कुलीन समाज बदनाम। ऐसी स्थिति आने के कारण
पर क्या कभी आपने विचार किया है? तथाकथित कुलीन कुल में जन्म लिए हुए
स्त्री-पुरुषों की ऐसी हीन दशा क्या कम दुःख का विषय है?
पागलों की
पैदावार बढ रही है
आपने आपकी संतानों को जिस
प्रकार पढाया है और पढा रहे हैं,उसको देखते हुए यह नहीं माना जा सकता कि आप अच्छे
माता-पिता हैं। आपने उन्हें ऐसा शिक्षण दिलाया है कि वे आपको पाठ पढावें, यहां तक तो ठीक, परन्तु आपको ही उठालें तो कोई
अचरज की बात नहीं। शिक्षण किसे कहा जाए? इसकी समझ आज न तो
मां-बाप को है और न शिक्षकों को। और ये सब शिक्षण देने निकले हैं। ऐसे शिक्षण से
तो आज पागलों की पैदावार बढ रही है। सुख में विराग और दुःख में समाधि, यह ऊॅंचे से ऊॅंचा शिक्षण है। ऐसे शिक्षण में प्रायः समाज के
अधिकांश लोगों की रुचि नहीं है, इसलिए बहुत विकृतियां हो रही
हैं। आप अपनी संतानों को स्वार्थ के लिए ही पढाते हैं। शिक्षण देकर भी आप अपकार कर
रहे हैं। ज्ञान का दान करके भी अज्ञानी बनाने का काम आपने शुरू किया है। ये कमाकर
लावें, यही आप चाहते हैं,परन्तु असंतोष की आग में ये जल मरें, इसकी आपको चिन्ता नहीं है। संतान को सिर्फ कमाने के लिए पढाए, वह अच्छे माता-पिता नहीं। पेट के लिए विद्या पढाना पाप है।
वर्तमान
विद्यार्थी-शिक्षक संबंध
वर्तमान समय में
विद्यार्थी-शिक्षक का जरा भी संबंध नहीं है। क्लास लेने जितना संबंध। कोई शिक्षक
जरा होशियार और कडक हो तो ठीक, नहीं तो शिक्षक आए और बोलकर
जाए, विद्यार्थियों में जिसे गरज हो वे सुनें, बाकी के खेलें या
नींद निकालें; ऐसी स्थिति है, इनमें है कोई संबंध? आज तो विद्या है कहां? मूर्खता ही है; अन्यथा तो विद्यार्थी कभी
शिक्षक के सामने छाती चौडी कर चलते हैं? विद्या हो तो इन्हें
कुछ भान नहीं हो? इनमें नम्रता, विनय, लघुता नहीं आए?शिक्षक
भी अधिकांशतः नौकरी की खानापूर्ति के लिए आते हैं। ये भी यदि वांचन में अटकें तो
शैतान विद्यार्थी तुरन्त शिक्षक की भी खिल्ली उडाए; इसलिए शिक्षक भी घर
से चार बार पुस्तक पढकर आते हैं; और यह तैयार किया हुआ खोखला
ज्ञान तडाकेबंद बोल जाते हैं। घण्टे-सवाघण्टे दिशासूचक लेक्चर कर रवाना हो जाते
हैं। विद्यार्थी भी ऐसे कि जचे तो पढें नहीं तो हुररे...... करते देर नहीं। शिक्षक
को भी लगता है कि ऐसे बंदरों को किस प्रकार पढाया जाए? उसे भी बराबर टिपटॉप
बनकर ही आना पडता है।
पहले के शिक्षक तो विद्यार्थी
क्या पढे इसकी सावधानी रखते थे। पचास प्रश्न पूछते, दो थप्पड भी मारते और
घण्टे की बजाय दो घण्टे बैठकर भी पक्का पढाते। खुद का विद्यार्थी मूर्ख नहीं रहे, इसकी उनको चिंता रहती थी; किन्तु ये पढनेवाले
भी विद्या के अर्थी होते थे। आज तो ऐसे विद्यार्थी हों तो पढाएं न? पढाई बढे तो ऐसी प्रवृत्ति चलती है? पढे-लिखे जहां-तहां
जैसा-तैसा खाते हैं? पढे-लिखे रास्ते में थूंकते
हैं? किसी को गाली देते हैं? जैसी-तैसी बकवास करते
हैं? आज का विद्यार्थी तो पूछता है कि ‘मुझे क्या मास्टर की सेवा
करनी है?’ मैं कहता हूं कि जरूर करनी है। पगचंपी भी करनी पडती है। पहले के
राजपुत्र भी करते थे। पाठक खुद का चित्त प्रसन्न हो तब पढाता है। राजपुत्र
उपाध्याय के वहीं रहते थे और उनकी सेवा-भक्ति करते थे। विनय, विवेक में जरा भी कमी नहीं और भाषा ऐसी मधुर व आनंददायी बोलते कि
मानो मुख से मोती खिरते हों। उस वक्त विद्या फलती थी, आज तो विद्या फूटती
है।
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