आप दुनिया में जिस-जिस सुख की कल्पना करते हैं, उनमें से एक भी सुख ऐसा नहीं है, जिसमें दुःख रहा हुआ न हो। वह सुख
अमुक काल से अधिक काल के लिए एकधारा में नहीं भोगा जा सकता। आपकी दृष्टि से मान
लें कि खाने में सुख है, परन्तु क्या कोई दिनभर खाता रह सकता है? पीने में सुख है तो क्या बिना
प्यास ही पानी पीते रहा जा सकता है? इसी तरह संसार का कोई भी सुख लीजिए,
वह निरंतर नहीं भोगा जा सकता। साथ
ही ऐसे सुख, दुःख
के होने पर ही भोगे जा सकते हैं। भूख लगे बिना खाना क्या सुखरूप लगता है? तब आप भूख को दुःख ही कहेंगे न? प्यास को भी दुःख ही कहेंगे न? जितना भूख-प्यास का दुःख अधिक होता
है, उतना
ही खाने और शीतल जल पीने का सुख अधिक होता है। जो सुख स्वतंत्र नहीं होता, उस सुख की अनुभूति करने से पहले
दुःख अवश्य होना चाहिए। ऐसे सुख को सुख मानना मूर्खतापूर्ण ही है।
भूख न लगे तो दवा लेने पहुंच जाते हो न? भूख दुःख है। यह दुःख न आए तो मरने
का भय लगता है। खाते-खाते कभी ऐसा विचार आया क्या कि कर्म के अधीन होकर मैं कैसा
रागी बन गया हूं कि जो सुख स्वतंत्र नहीं,
उसका स्नेही बनकर, यदि दुःख न आए तो भी जी न सकूं, ऐसी मेरी दुर्दशा हो गई है। ऐसा
विचार आए तो भूख ही न लगे, आहार की अपेक्षा ही न रहे। ऐसी दशा का विचार आए तो सच्चे
सुख को पाने हेतु मोक्ष की मुसाफिरी करने का मनोरथ जागे। भौतिक सुख का यही एक बडा
दुःख है कि उसमें सुख देने की स्वतंत्र शक्ति नहीं है। दुःख की मात्रा के अनुसार
ही वह सुख देता है।
दुःख में दुःख और सुख में सुख मानना मूर्खता
यह संसार सुख-दुःख का मेला है। दुःख अधिक है, सुख थोडा है। इन दो के सिवाय संसार
में और है ही क्या? ऐसे संसार के दुःख में दुःख मानना और सुख में सुख मानना
मूर्खता है। इसके विपरीत, दुःख में जिन्होंने आनन्द माना वे ही मोक्ष में गए। सुख को
जिन्होंने लात मारी वे ही त्यागी बन सके। पाप से प्राप्त दुःख में नाराजी और पुण्य
से प्राप्त सुख में प्रसन्नता, इसी का नाम अविरति है। जगत को ‘अविरति’ का भान नहीं। यह बात जैन शासन में ही है। परन्तु, जैन भी आजकल ‘अविरति’
को नहीं समझते। आजकल इस संसार रूपी
नक्कारखाने में अविरति की ही नौबत बज रही है,
ऐसे में हमारी तूती कौन सुने? सुख के साधनों में मौज करने वाले, उसकी अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा करने
वाले और उसकी कमी के लिए खेद प्रकट करने वाले;
सब अविरति में फंसे हुए हैं।
मिथ्यात्व कहता है कि ‘जहां तक मेरी अविरति आनन्द में है, वहां तक मुझे कोई चिन्ता नहीं। जब
अविरति रोने लगती है, तब मुझे घबराहट होती है।’
कर्म के उदय से जीव को दुःख आने ही
वाला है। उस समय कदाचित् ऐसे संयोग मिल जाएं कि उस पर दया करने वाला कोई न रहे। आज
हजारों जानवर बिना किसी अपराध के काटे जा रहे हैं और किसी के पेट का पानी नहीं हिल
रहा है। जानवरों के पाप का उदय भी ऐसा आया है कि वे काटे जा रहे हैं और उन पर दया
करने वाला कोई नहीं है; आपके लिए भी दुःख के प्रसंग में ऐसा नहीं होगा, इस बात का क्या भरोसा है? इसलिए इस बात को गहराई से समझो और
दुःख में दुःख व सुख में सुख मानना और वैसा व्यवहार करना छोडो। समभाव से रहो।-सूरिरामचन्द्र
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