अविनीत
शिष्यों द्वारा गुरुओं की आशातना, अपने नाम एवं गुटबाजी के चलते चरित्रनिष्ठ
संतों (गुरुओं) की अवहेलना करने वालों और धर्म गुरुओं को ठेस पहुंचाने वालों और उनकी
अवज्ञा करने वालों की दुर्गति निश्चित रूप से होती है। गुरुओं की महिमा के संबंध में
विभिन्न धर्म शास्त्रों में बहुत कुछ कहा गया है। उनके ऋण से उऋण होना दुष्कर है। दशवैकालिक
सूत्र में गुरु की पर्युपासना करने और गुरु के प्रति विनय भाव रखने को कहा गया है।
यहां तक कि शिष्य को गुरुजनों के समीप किस विधि से बैठना चाहिए, इसकी
भी विधि बताई गई है। दशवैकालिक सूत्र के आठवें अध्ययन में कहा गया है कि-
गुरु
के समीप बैठते समय अपने हाथ, पैर आदि शरीर के अवयवों (अंगों)
को संकोच कर पूरी सभ्यता से बैठना, हाथों को न नचाना, पैरों
को न फैलाना और शरीर को बार-बार मोडने (मरोडे खाने) की कुचेष्टा न करना, गुरु
के न अति निकट और न अति दूर बैठना चाहिए। गुरु के एकदम सामने या पीछे बैठने का भी निषेध
किया गया है, क्योंकि उससे गुरु की एकाग्रता भंग हो सकती है। गुरु के
सम्मुख एकदम निकट बैठने से अविनय भी होता है और गुरु को वंदना करने वालों को व्याघात
होता है। गुरु के पीछे बैठने से गुरु के दर्शन नहीं होते और उनकी कृपापूर्ण दृष्टि
शिष्य पर नहीं पडती। दशवैकालिक सूत्र में ही आगे कहा गया है कि गुरु के बिना पूछे नहीं
बोलना चाहिए और गुरु यदि बात कर रहे हों तो बीच में नहीं बोलना चाहिए। गुरु के समक्ष
चुगली अथवा कपटपूर्ण बातें नहीं करनी चाहिए।
गुरु
के प्रति अविनय अथवा अवज्ञा के संबंध में कहा गया है कि-
ऐसे
सद्गुरु किसी को श्राप नहीं देते, किन्तु उनके अविनय और उन्हें किसी
भी प्रकार से ठेस पहुंचाने पर शिष्य के कर्मों का ऐसे बंध हो जाता है कि उसकी दुर्गति
स्वाभाविक हो जाती है। दशवैकालिक सूत्र की उपर्युक्त गाथाओं में कहा है कि जो शिष्य
गर्व, क्रोध, माया और प्रमादवश गुरुदेव के प्रति
विनय नहीं रखता, उसका अहंकार उसके विनाश का कारण बनता है। जो शिष्य गुरु
की ये मंदबुद्धि हैं, ये अल्पवयस्क हैं तथा अल्पश्रुत
हैं, ऐसा कहकर गुरुओं की आशातना करता है, वह
मिथ्यात्व को प्राप्त करता है। गुरु चाहे मंद हो या प्राज्ञ, अवज्ञा किए जाने पर
शिष्य की गुणराशि उसी प्रकार भस्म हो जाती है, जिस प्रकार ईंधन अग्नि
से भस्म हो जाता है। गुरु की अवहेलना करने वाले शिष्य संसार में बार-बार जन्म-मरण करते
हैं। कदाचित अग्नि आपके पैर न जलाए, सांप आपको न डस सके, बहुत
तगडा जहर भी कदाचित आपको न मार सके, लेकिन गुरु की आशातना के अशुभ फल
से आपको छुटकारा नहीं मिल सकता।
गुरु
की आशातना करना पर्वत से अपना सिर टकराना है। सोए हुए सिंह को छेडकर जगाना या भाले
की नोंक पर हथेली से प्रहार करने जैसा है। पर्वत से टकराने वाले का सिर चकनाचूर हो
जाता है, सिंह को जगाने वाला स्वयं कालकवलित हो जाता है और भाले
की नोंक पर प्रहार करने वाले के अपने हाथ-पैर से रक्तधारा बहने लगती है। इसी प्रकार
गुरु की आशातना करने वाला अविवेकी अपना ही अहित करता है। इहलोक-परलोक दोनों में ही
दुःख पाता है।
प्रायः
देखने में आता है कि समाज में गुटबाजी या अपने नाम अथवा तुच्छ स्वार्थों के लिए कई
तथाकथित शिष्य (श्रावक-श्राविका) साधुओं (गुरुओं) की अज्ञानतावश उपेक्षा करते हैं, उनके
बारे में मिथ्या प्रचार करते हैं, लोगों को गुमराह करने का काम करते
हैं, समाज में विघटन अथवा अपना वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश
में गुरुओं का अपमान तक कर डालते हैं अथवा उनके प्रति अपमानजनक भाषा का प्रयोग करने
से भी परहेज नहीं करते हैं। ऐसे लोगों को गुरु का महत्त्व समझना चाहिए। आदिशंकराचार्य
ने अपने एक श्लोक में गुरु की महत्ता के बारे में कहा है-
शरीरं
सुरुपं तथा वा कलत्रं, यशश्चारु चित्रं धन मेरुतुल्यम्
।
मनश्चेन्न
लग्नं गुरोरंघ्रिपद्मे, ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम्
।।
यदि
शरीर रूपवान हो, पत्नी भी रूपसी हो, सत्कीर्ति का चारों
दिशाओं में विस्तार हो, मेरु पर्वत के तुल्य अपार धन हो, किन्तु
गुरु के श्रीचरणों में यदि मन न लगे तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ? गुरु
के बिना जीवन अधूरा है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें