भारत के कुछ स्थानों पर एक दृश्य देखा जा सकता है। होटलों में
जूठी प्लेटें साफ करके उनकी बची जूठन जब-जब बाहर फेंकी जाती है, तो इंसानों के बच्चे कुत्तों की तरह झपटकर उन जूठे दानों से
अपना खाली पेट भरते हैं। स्वर्ग में बैठी आजादी के शहीदों की आत्माएं जब देश की 70 साल की आजादी के बाद भी यह स्थिति देखती होगी तो क्या सोचती
होगी, यह सोचकर रगों का खून जमने लगता
है। देश की सम्पूर्ण स्थिति पर दृष्टिपात करने पर लगता है कि देश अंग्रेजों की गुलामी
से मुक्त होकर इसी देश के चन्द राजनीतिबाजों एवं कालाबाजारियों की गुलामी के चंगुल
में फंस गया है।
इस देश में जब ज्यादा गर्मी पडती है तब भी लोग मरते हैं और ज्यादा
सर्दी पडती है तब भी लोग मरते हैं। गर्मी व सर्दी के समाचारों के साथ अकाल मरने वालों
का समाचार भी अवश्य आता है। कभी किसी नेता या बडे अफसर के गर्मी अथवा सर्दी से मरने
के समाचार सुने हैं? वास्तव में गर्मी या सर्दी
से कोई नहीं मरता, परन्तु जब तन ढकने को कपडा
न हो, पेट भरने के लिए मुट्ठी भर दाने
न हों और लू से सिर छिपाने के लिए कोई छत न हो, तो कोई भी बहाना जिंदगी को मौत में बदलने के लिए काफी है।
पर्याप्त व पौष्टिक भोजन न मिलने के कारण भारत में प्रतिवर्ष
25 हजार बच्चे अंधे हो जाते हैं, वहीं ढाई लाख से ज्यादा बच्चे अपने जन्म का एक वर्ष भी पूरा
नहीं कर पाते हैं। देश की 20 फीसदी
से ज्यादा आबादी कुपोषण और भूखमरी की शिकार है। देश का शिक्षित युवा आपराधिक प्रवृत्तियों
की ओर अग्रसर होता जा रहा है। क्यों ऐसा हो रहा है..?
सोचिए जरा, हम कहां
जा रहे हैं?
तथाकथित सभ्य समाज के वैवाहिक भोजों में जितना अन्न पेट में
जाता है, उतना ही जूठन में भी जाता है; यह संवेदनहीनता, विवेकशून्यता की पराकाष्ठा है। हम इतना तो कर ही सकते हैं कि आज से कहीं पर भी, किसी भी स्थान पर अपने खाने में जूठन नहीं छोडेंगे। प्लेट में
उतना ही लें जितना खा सकें। जितनी भूख हो उससे कुछ कम खाएं। हमारे आसपास कोई भूखा हो
तो थोडा उसे जरूर खिलाएं। कुछ तो कर ही सकते हैं। इससे आपकी सेहत भी अच्छी रहेगी और
किसी और की भूख भी बुझ सकेगी।
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