भौतिक सुख एक उत्तेजना है, और दुःख भी। प्रीतिकर उत्तेजना को सुख और अप्रीतिकर को हम
दुःख कहते हैं। आनन्द दोनों से भिन्न है। वह उत्तेजना की नहीं, शान्ति की अवस्था है। भौतिक सुख जो चाहता है, वह निरंतर दुःख में पडता है। क्योंकि, एक उत्तेजना के बाद दूसरी विरोधी उत्तेजना वैसे ही
अपरिहार्य है, जैसे कि पहाडों के साथ घाटियां होती हैं और दिनों के
साथ रात्रियां। किन्तु, जो सुख और दुःख दोनों को छोड
कर सर्वविरति के लिए तत्पर हो जाता है,
वह उस आनन्द को उपलब्ध
होता है, जो कि शाश्वत है।
आत्मा से उत्पन्न होने वाले
वास्तविक आनन्द की बजाय, जो वस्तुओं और विषयों से
निकलने वाले सुख को ही आनन्द समझ लेते हैं,
वे जीवन की अमूल्य
सम्पदा को अपने ही हाथों नष्ट कर देते हैं। ध्यान रहे कि जो कुछ भी बाहर से मिलता
है, वह छीन भी लिया जाएगा। उसे अपना समझना भूल है। स्वयं
का तो वही है, जो कि स्वयं में ही उत्पन्न होता है। वही वास्तविक
सम्पदा है। उसे न खोजकर, जो कुछ और खोजते हैं, वे चाहे कुछ भी पा लें,
अंततः वे पाएंगे कि
उन्होंने कुछ भी नहीं पाया है और उल्टे उसे पाने की दौड में वे स्वयं जीवन को ही
गंवा बैठे हैं। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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