आज समाज की बहुत विचित्र दशा
है। मुनि को उपसर्ग न हो तो भी खडे करना,
ऐसा। आज तो ऐसी दशा भी
है कि यह तक भी कह दिया जाता है कि ‘साधु बाहर क्षेत्र में क्यों
नहीं विचरते? आहार न मिले तो भूखे रहें। साधु मुफ्तखोर हुए हैं’, ऐसा कहने वाले दरअसल श्री जिनेश्वर देव के संयम के स्वरूप
को समझते ही नहीं हैं। संयम की साधना न हो,
वहां मुनि नहीं जा
सकता, ऐसी बातें ये समझें कहां से? संयम की विराधना करके तो साधु लोग तीर्थयात्रा भी नहीं कर
सकते। श्री जिनेश्वर देव की आज्ञा के अनुसार ही संयम की आराधना करना, यही साधु के लिए वास्तविक यात्रा है। इस आज्ञा को लोपित
करके चलना, यह संयम को बेच खाने जैसा है। बाकी विचरने योग्य
क्षेत्रों में तो साधु यथाशक्य विचरते ही हैं और स्वयं के आत्महितार्थ विधि के
अनुसार यात्रा भी करते हैं। यानी सुसाधुगण विकट होते हुए भी योग्य प्रदेशों में
विचरण करते ही नहीं हैं, ऐसा है ही नहीं। परन्तु, आज संयम को बेच खाकर भटकने वाले, स्वयं की वाह-वाह के लिए भोले लोगों के हृदय में ऐसी खोट
पैदा करें और धर्मद्रोही ऐसा बोलें,
इसमें कोई आश्चर्य या
नवीनता नहीं है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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