रविवार, 7 अप्रैल 2013

आसक्ति से निम्न गति


आप जानते हैं स्वर्ग में रहने वाले देवता अपार ऋद्धि सम्पदा के स्वामी होते हैं। उन देवताओं के मन में भी उस देवलोक के किसी सुख पर आसक्ति रह जाती है, तो उनकी आत्मा कहां से कहां गिर जाती है। जरा-सी आसक्ति अगर उनकी कहीं रह जाती है तो वे देवता मर कर क्या बन जाते हैं? पृथ्वी, पानी, वनस्पति में उनका जीव उत्पन्न हो जाता है। क्यों? ऐसा कैसे हो जाता है कि पंचेन्द्रिय का जीव एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो जाता है? जो देव अथाह वैभव के स्वामी थे, जिनके यहां सुख ही सुख था, वे इतने स्वर्गीय सुख के स्वामी कहां से कहां गिर पडे?

सोचिए आप एकेन्द्रिय से बेइन्द्रिय का शरीर पाने के लिए भी जीव को कितनी पुण्यवानी की आवश्यकता होती है? अनन्त पुण्यवानी का उदय होता है, तब जाकर कोई भी जीव एकेन्द्रिय से बेइन्द्रिय में गति पाता है। फिर अनन्त पुण्यवानी का उदय होता है तो, वह आत्मा बेइन्द्रिय से तेइन्द्रिय में प्रवेश करती है। तेइन्द्रिय से चतुरेन्द्रिय में पहुंचने के लिए भी अनन्त पुण्यवानी की आवश्यकता होती है।

इसी तरह से अनन्त पुण्यवानी का उदय होता है तो जीव पंचेन्द्रिय में जाता है। और वहां भी अनन्त पुण्यवानी का उदय होता है, तो वह देवलोक में जाता है। इतने अनन्त पुण्यों के संचय के बाद आत्मा देवलोक में जाती है और वहां अगर थोडी-सी आसक्ति भी रह जाए तो ऐसी गिरती है कि सारी पुण्यवानी खत्म हो जाती है। देवलोक से जीव सीधा एकेन्द्रिय में प्रवेश कर जाता है। यह सब किस कारण होता है? आसक्ति-भाव के कारण। इसलिए किसी में आसक्ति न रखो। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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