संसारीपन से मुक्त होने के
लिए एकमात्र अनुपम साधन अनंतज्ञानी श्री जिनेश्वर देवों द्वारा उपदिष्ट धर्म है।
धर्म की आराधना करने का वास्तविक हेतु यही है कि स्वयं का संसार नष्ट हो। श्री
जिनेश्वर देव के स्वरूप को जानने और मानने वाले में स्वयं का अथवा दूसरे का किसी
का संसार टिकाए रखने की भावना हो, ऐसा नहीं है। जिसको संसार में
रहने की रुचि हो, जिनको संसार में रहना अच्छा
लगता है, उनमें साधुपन भी नहीं और श्रावकपन भी नहीं है। स्वयं
का और सबके संसार के नाश की अभिलाषा रखना,
यह ऊॅंची में ऊॅंची
कोटि की इच्छा है। आत्मा में भाव-दया प्रकट हुए बिना इस प्रकार की उत्तम इच्छा
प्रकटे, यह संभव नहीं है। ‘जीव मात्र के संसार का नाश हो’,
ऐसी अभिलाषा की
उत्कृष्टता से तो तीर्थंकरत्व पुण्य का उपार्जन होता है। संसार अर्थात् विषय और
कषाय। जिसके विषय-कषाय दूर हो गए, उसका दुःख भी दूर हो गया।
उसका संसार परिभ्रमण भी टल गया है। विषय-कषाय के योग से ही आत्मा को जन्ममरणादि का
दुःख भोगना और चार गति चौरासी लाख जीव योनियों में भटकना पडता है। यह मानव-भव उससे
मुक्ति के लिए है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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