सोमवार, 29 अप्रैल 2013

जीवन की सफलता


आत्मा के मूलभूत स्वरूप को प्रकट करने का प्रयत्न करना, यही इस मनुष्य जीवन को सफल बनाने का उपाय है। इस बात को आज बहुत से लोग, जैन कुल में उत्पन्न होने पर भी समझते नहीं हैं। इसीलिए मोह को पैदा करने में कारणरूप बने संसर्गों को लात मारने वालों की तरफ उनमें सम्मानवृत्ति जागृत होने के स्थान पर तिरस्कारवृत्ति जागृत होती है। संसार का सुख एवं आधिपत्य, बालवय वाला पुत्र और युवान स्त्री आदि के प्रति मोह को त्याग कर, संयम की साधना के लिए उद्यमवंत बनने वाली आत्माओं के प्रति तो सच्ची श्रद्धालु आत्माओं का मस्तक सहज रूप में झुक जाए। ऐसा हो जाए कि धन्य हो ऐसी आत्माओं को’, यह बोल स्वतः निकल पडें। इतना ही नहीं, अपितु श्रद्धासम्पन्न आत्माओं को तो स्वयं की पामरता के लिए खेद भी होता है। किन्तु, आज बहुत से पामरों को पामरता, पामरता लगती ही नहीं है। संसार में निवास करना दुःखरूप है और संयम-साधना ही कल्याणकारक है, ऐसा मानने वाले भी कम ही हैं। अनन्तोपकारी श्री जिनेश्वरदेवों के शासन पर सच्ची श्रद्धा हो, ऐसी आत्माएं जैन गिने जाते आदमियों की लाखों की संख्या में भी गिने-चुने ही होंगे। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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