स्वर्ण पात्र में मदिरा
अमूल्य मानव जीवन आयु के
अनुरूप चेष्टाओं में ही नष्ट कर डालना विवेकी मनुष्यों के लिए लज्जास्पद है। जो
पुरुष बचपन में विष्टातुल्य मिट्टी में लीन रहते हैं, युवावस्था में काम-चेष्टा में लीन रहते हैं एवं वृद्वावस्था
में अनेक प्रकार की दुर्बलताओं से पीड़ित रहते हैं, वे किसी भी आयु में पुरुष नहीं हैं,
अपितु बाल्यावस्था में
शूकर, युवावस्था में गर्धभ हैं और वृद्धावस्था में अत्यंत
वृद्ध बैल हैं। मानव जन्म पाकर भी बचपन में माता की ओर ताकते रहने, युवावस्था में पत्नी का मुँह ताकते रहने और वृद्ध अवस्था
में पुत्र का मुँह ताकते रहने में मूर्खता है। जो मनुष्य सिर्फ धन की आशा और भौतिक
सुख-सुविधाओं की आकांक्षाओं में विह्वल होकर अपना जन्म दूसरों की नौकरी में, कृषि में, अनेक आरम्भ युक्त व्यवसाय में
एवं पशुपालन में व्यतीत करते हैं, वे अपना जीवन व्यर्थ नष्ट
करते हैं।
जो मनुष्य अपना जीवन
धर्म-क्रियाओं में व्यतीत करने के बदले सुख के समय काम-वासना में एवं दुःख के समय
दीनतापूर्ण रुदन में व्यतीत करते हैं,
वे मोहान्ध हैं। क्षण
भर में अनेक कर्मों के समूह को क्षीण करने की क्षमता वाले मनुष्य-जीवन को पाकर भी
जो पाप-कर्म करते हैं, वे सचमुच पापी हैं।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र के पात्ररूपी
मानव-जन्म को पाकर भी जो मनुष्य पाप करते हैं,
वे स्वर्ण पात्र में
मदिरा भरने वाले हैं। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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