हम
बहुत सौभाग्यशाली हैं कि हमें आज श्रमण भगवान महावीर स्वामी की 2,612 वीं
जयंती मनाने का सुअवसर प्राप्त हुआ है।
यह
तो आप सभी प्रायः जानते ही हैं कि प्रभु महावीर का जन्म वैशाली गणराज्य के
कुण्डलपुर में हुआ। उनकी माता त्रिशला और पिता सिद्धार्थ थे, भाई
नंदीवर्द्धन थे। प्रभु ने 30 वर्ष की अवस्था में संयम ग्रहण
किया, साढे बारह वर्ष तक घोर तपश्चर्या की और फिर केवलज्ञान
प्राप्त किया। तीर्थ की स्थापना की। इसके बाद तीस वर्ष तक ग्रामानुग्राम विचरण
करते हुए उन्होंने मोक्षमार्ग का उपदेश दिया और उसके पश्चात उन्होंने निर्वाण
प्राप्त किया। वे हमारे 24वें तीर्थंकर हुए। यह सब तो आप
वर्षों से सुनते आ रहे हैं और मैं भी यदि यही सब कहूंगा तो शायद आपको रुचिकर नहीं
लगेगा। मैं आज आप लोगों के सामने जो कुछ रखने जा रहा हूं, वह
आज की युवा पीढी, खासकर बुद्धिजीवी वर्ग और धर्म से दूर भागने वाले
लोगों के लिए पढने-समझने जैसा है।
क्या
आप जानते हैं और मानते हैं कि भगवान महावीर बहुत जिद्दी थे? कभी
आपने इस नजरिए से सोचा है कि भगवान महावीर कोई भगवान-वगवान नहीं थे, वे
भी आपके और हमारी तरह एक सामान्य इंसान थे? अधिक
से अधिक कह दें तो वे राजकुल में जन्मे एक राजकुमार थे और मानव से महामानव बनने की
उनकी दिलचस्प और संघर्षमयी यात्रा उनके जिद्दीपन की वजह से ही सफल हुई। वे एक
सामान्य इंसान से सन्यासी हुए, तपस्वी हुए, अरिहंत, तीर्थंकर
और फिर सिद्ध हुए।
उनकी
संयम यात्रा के दौरान उन्होंने समाज को जैसा देखा-जाना, उसका
उन्होंने मनोवैज्ञानिक समाधान दिया, इसलिए वे इस युग के सबसे बडे
मनोवैज्ञानिक हैं। मनोविज्ञान आप समझते हैं? साइकोलॉजी? मन
का विज्ञान? आदमी तनावग्रस्त क्यों है? आदमी
डिप्रेशन में क्यों है? आदमी क्रूर-हिंसक क्यों है? आदमी
क्रोधी क्यों है? घर में महिलाएं बर्तन क्यों पटकती हैं? मर्द
औरत को क्यों पीटता है? क्यों उसमें अहंकार है? क्यों
लोग आत्महत्या कर लेते हैं? कैसे उन्हें आत्महत्या से बचाया जा
सकता है? औरतें हिस्टीरिया में पछाडे खा रही है, उसका
उपचार क्या है? इंसान को गंदे और नकारात्मक विचार क्यों आते हैं? लोभ, लालच, अहंकार, माया, असुरक्षा
की भावना, परिग्रह, प्रतिस्पर्द्धा, अशान्ति, दुःख, विशाद
और इस तरह के कई सवाल हैं जो मनोविज्ञान से संबंधित हैं। सात सौ से ज्यादा प्रकार
की बीमारियां हैं जो मनोविज्ञान से संबंधित हैं। बीपी, शूगर, एसीडिटी, हाइपरटेंशन
और इस प्रकार की कई बीमारियां, जिनका उपचार महान मनोवैज्ञानिक
भगवान महावीर स्वामी ने बताया है।
नींद
नहीं आती। आप लोगों में से भी कई भाई-बहिन होंगे, जिन्हें
नींद नहीं आती होगी? आप तो नींद की गोली ले लेते हैं, इस
डर से कि नींद नहीं आएगी तो बीमार हो जाएंगे, दूसरे
दिन काम कैसे करेंगे? लेकिन महावीर ने तो संयम ग्रहण करने के बाद अपने पूरे
छद्मस्थ काल में नींद ली ही नहीं, उन्हें तो कई टुकडों में कुछ
क्षणों की झपकियां ही आईं, जो पूरे छद्मस्थ काल में कुल
मिलाकर मात्र एक अंतर्मुहूर्त, लगभग 48 मिनिट
जितने समय की होती हैं। वे तो सीधे-सपाट कभी सोए ही नहीं, निरन्तर
कायोत्सर्ग और ध्यान में ही रहे। और आहार कितना किया? साढे
बारह वर्ष में कुल मात्र 349 दिन। कुल मिलाकर एक वर्ष के जितना
समय भी नहीं। लगभग 4,550 दिनों में से मात्र 349 दिन
एक समय आहार लिया। फिर भी उन्होंने ग्रामानुग्राम विचरण किया। इतने उपसर्ग सहे।
कभी किसी चण्डकौशिक जैसे भयंकर सांप ने काटा, तो
कभी संगम जैसे देव ने उन्हें पछाडा, तो कभी किसी ग्वाले ने कान में
कीले ठोक दिए! सबकुछ सहन किया, कभी ऊफ तक नहीं किया। वे अपने
लक्ष्य से पीछे नहीं हटे।
यहां
तक कि केवलज्ञान प्राप्त करने और तीर्थ की स्थापना करने के बाद भी प्रभु महावीर को
चैन नहीं था। प्रभु महावीर ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन
सुखाय’ जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन कर लोगों को दुःख-मुक्त
करना चाहते थे, उसका भी प्रबल विरोध करने वाले उस समय थे। ऐसे
अलग-अलग धार्मिक मान्यताओं वाले 363 विरोधी मतावलम्बी तो स्वयं भगवान
के समवसरण में आकर बैठते थे और वहां देशना सुनने के बाद बाहर जाकर विचार करते थे
कि इन बातों का खण्डन कैसे किया जाए और वे दुष्प्रचार करते थे। गोशाला और जमाली
जैसे लोगों ने भगवान से ही ज्ञान प्राप्त कर भगवान के खिलाफ अपना पंथ चलाया और
लोगों को सुविधा-भोगी बनाया। प्रभु के 14,000 साधु, 36,000 साध्वियां
और 1,59,000 श्रावक व 3,18,000 श्राविकाएं; इस
प्रकार कुल 5,27,000 अनुयायी थे, जबकि गोशाला के 11 लाख
अनुयायी थे; लेकिन आज उनका कहीं अस्तित्व नहीं है। क्योंकि वे
मिथ्यात्वी थे। गोशाला को और जमाली को ज्ञान का अपच हो गया था। तो ऐसे प्रभु
महावीर जिनकी वाणी ध्रुव सत्य है, जिसे न कभी कोई चुनौती दे सका और न
दे सकेगा, उनके आप अनुयायी हैं, यह
कितने गर्व की बात है। वे राग और द्वेष से रहित थे, वीतरागी
थे, इसलिए उनकी वाणी कभी गलत हो ही नहीं सकती। गलत बात
तभी बोली जाती है, जब कोई तुच्छ स्वार्थ हो, उनका
कोई स्वार्थ था ही नहीं, वे तो वीतरागी, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त
थे। लेकिन, उन्होंने इस सत्य को पाने के लिए, जीवों
के कल्याण के लिए कितना कुछ सहा, यह चिन्तन का विषय है। ऐसा आपके
काम और व्यवसाय में विरोधियों का विघ्न हो तो आप कितने तनाव में आ जाएंगे? आपके
बीपी का क्या होगा? आपकी नींद का क्या होगा? लेकिन, भगवान
महावीर को कभी इसका तनाव या चिन्ता हुई? नहीं!
आप
कहते हैं कि खाना नहीं खाएंगे तो कमजोर हो जाएंगे, खाना
भी कैसा? पीजा, बर्गर, फास्टफूड, जंकफूड, पेप्सी, कोला, भक्ष्य-अभक्ष्य
का विवेक किए बिना जो आया उसे ठूंसना है, क्योंकि जुबान को स्वाद आता है, इन्द्रियों
की गुलामी करनी है! नींद भी पूरी चाहिए, खाना भी पूरा चाहिए, त्याग
नहीं हो सकता, इसमें कमी होगी तो बीमारियां होंगी। फिर महावीर बीमार
क्यों नहीं हुए? बडे-बडे राजे-महाराजे, बडे-बडे
श्रेष्ठी, शालीभद्र जैसी कोमल काया, अपार
ऋद्धि-सिद्धि को छोडकर महावीर के पीछे निकल पडे, ये
सभी कभी बीमार क्यों नहीं हुए? कभी आपने यह नहीं सोचा कि इन इन्द्रियों
की गुलामी और जिव्हा के स्वाद के कारण हमारी आधी से ज्यादा बीमारियां हैं? मन
और इन्द्रियां आपके वश में नहीं है, इसलिए ये बीमारियां हैं। महावीर के
उपदेशों पर आपकी दृढ श्रद्धा और विश्वास नहीं है, उनको
जीवन में ढालने के प्रति आप में उदासीनता है, शुद्ध
संयम के प्रति आपके मन में उदासीनता है, इसलिए ये बीमारियां हैं। भगवान
महावीर को तो यह सब बीमारियां नहीं हुई। आप कहेंगे कि वे तो भगवान थे! बस, उन्हें
भगवान कहते ही सब बात खत्म! हम जब किसी को भगवान मान लेते हैं तो आगे कुछ करने को
रहता ही नहीं है। "वे तो भगवान थे, वे तो सबकुछ कर सकते थे, हम
तो इंसान हैं, हम यह नहीं कर सकते।" यह केवल जी चुराने या
अज्ञानता की बात है। यह गलत है। पहली बात तो यह कि वे भगवान नहीं थे। वे साधारण
इंसान थे, उनमें इंसानियत थी और इंसान के रूप में उन्होंने जो
कुछ पुरुषार्थ किया, राजपाट, अपार रिद्धि-सिद्धि और राजसी
सुख-भोग का त्याग किया, संयम ग्रहण किया, उग्र
तपस्याएं की, उससे अतिशय लब्धियां हांसिल की, केवलज्ञान
प्राप्त किया, उससे वे हमारे लिए भगवान बने, हमें
रास्ता दिखाया, इसलिए हम उन्हें भगवान कहते हैं, मानते
हैं, पूजा करते हैं; और
उन्होंने हमें रास्ता भी कैसा दिखाया कि जिस पर हम चलकर स्वयं भगवान बन सकें, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त
हो सकें।
बात
दरअसल यह है कि हम उस रास्ते पर चलने की बजाय, उसकी
पूजा में ही लग गए। हमें किसी गांव जाना है, किसी
ने बताया कि उस गांव का रास्ता इधर है, हम उस रास्ते पर आगे बढने की बजाय, वहीं
बैठकर रास्ते की पूजा करने लगें तो क्या उस गांव में पहुंच सकते हैं? नहीं!
इसी प्रकार हम सभी चाहते तो मोक्ष हैं, हम चाहते तो अक्षय सुख और अक्षय
आनंद हैं, किन्तु उसके लिए पुरुषार्थ नहीं करना चाहते हैं।
मोक्ष यदि हमारी मंजिल है तो वहां पहुंचने के लिए आचरण का पुरुषार्थ तो करना पडेगा
न? आज
तो हम धर्म कर रहे हैं लौकिक ऐषणा के लिए। धर्म के प्रभाव से मुझे स्वर्ग मिल जाए, धर्म
के प्रभाव से भौतिक सुख-सुविधा, ऋद्धि-सिद्धि मिल जाए। मिल जाएगा, लेकिन
इसका अंतिम परिणाम क्या होगा? धर्म सबकुछ देता है, धर्म
करने से सबकुछ मिलता है, लेकिन लक्ष्य मोक्ष का ही होना
चाहिए; तो पुण्यानुबंधी पुण्य का उपार्जन होगा; परन्तु
यदि हमने और किसी चीज की कामना कर ली तो पापानुबंधी पुण्य उपार्जित होगा, जिसके
फलस्वरूप चाही गई वस्तु तो आपको मिल जाएगी, लेकिन
वह अंततोगत्वा आपको पाप मार्ग पर लेजाकर दुर्गति का मेहमान बनाएगी। जबकि मोक्ष की
और सिर्फ मोक्ष की ही आकांक्षा से आप धर्म करेंगे तो पुण्यानुबंधी पुण्य से आपको
सबकुछ मिलेगा और वह आपको पाप की ओर नहीं ले जाएगा। आज तो स्थितियां बहुत ही विकट
हो गई है, हम तीर्थंकर भगवानों को गौण कर उनकी सेवा में रहने
वाले देवी-देवताओं की खुशामद में लग गए हैं। अपने सोचने का, चिंतन
का थोडा नजरिया बदलिए। धर्म को वास्तविक स्वरूप में अपनाइए और उसकी सही आराधना
करिए, प्रभु महावीर के सिद्धान्तों को आचरण में ढालिए और
फिर देखिए उनका कमाल। खैर...... मैं पुनः अपनी मूल बात पर आता हूं।
जैसा
मैंने शुरु में कहा कि भगवान महावीर जिद्दी थे। मेरा मकसद यहां भगवान को जिद्दी
कहकर उनकी अवमानना, आशातना करने का नहीं है। मेरे लिए वे पूज्य हैं, आदरणीय
हैं, आचरणीय हैं। वे जिद्दी थे, कैसे? वे
दृढ संकल्पी थे, कैसे? उनकी जिद्द थी संयम की, उनकी
जिद्द थी तपस्या की, उनकी जिद्द थी जीव मात्र की समस्या का समाधान पाने की, उनकी
जिद्द थी सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बनने की और सभी जीवों के कल्याण की, सभी
को दुःख मुक्त होने, बीमारियों से मुक्त होने का रास्ता बताने की।
महावीर
ने देखा कि सामाजिक जीवन में न केवल आर्थिक विषमता है, प्रत्युत
वर्गभेद भी चरम पर है, मानव-मानव के मन में एक-दूसरे के प्रति ममता और
सौहार्द के स्थान पर घृणा-ग्लानि कूट-कूट कर घर कर गई है। समाज में स्त्रियों का
स्थान अत्यंत नगण्य है, दास और दासियों के रूप में मनुष्य, स्त्री
और बालकों का क्रय-विक्रय ठीक उसी प्रकार हो रहा है, जिस
प्रकार सामान्य उपभोग की वस्तुओं का। महावीर के मन में विराग जन्मा, उसका
एक कारण समृद्धि में से जन्मा त्याग था, परन्तु उससे अधिक महावीर ने अपने
चारों ओर के सामाजिक वातावरण को जैसा देखा-समझा और युग के आह्वान को जिस तीव्रता
के साथ अनुभव किया, उससे उन्हें लगा कि यह सारा समाज जैसे ‘त्राहिमाम्-त्राहिमाम्’ की
आवाज देकर उन्हें बुला रहा है। ‘सवी जीव करूं शासन रसि’, यह
भावना जब तीव्र होती है, तो तीर्थंकर गौत्र का बंध होता है।
आप महावीर के 27 भवों का खयाल करेंगे तो आपको इस बात की पुष्टि हो
जाएगी। महावीर ने अनुभव किया कि जैसे चारों ओर से अनगिनत आवाजें उन्हें
पुकार-पुकार कर कह रही हों कि हमारी विषमताएं, हमारी
उपेक्षाएं, हमारी असमर्थताओं के कारण होता हमारा दुरुपयोग, हमारे
अभाव और दयनीय स्थिति को आकर देखो और उसका समाधान दो।
महावीर
को लगा कि इसके लिए यह पारिवारिक जीवन छोडना पडेगा। जब तक वे राजभवन नहीं छोडेंगे, तब
तक न जनसामान्य की आवाज उन तक पहुंच सकेगी और न ही उनकी आवाज जनसामान्य तक पहुंच
पाएगी और न ही सही-सटीक समाधान प्राप्त हो सकेगा। वे सबकुछ छोडकर निकल पडे। साढे
बारह वर्ष तक एकान्त चिंतन और कठोर जीवन जीने के तरह-तरह के प्रयोग वे करते रहे और
इसके लिए घोर उपसर्गों को सहन किया। वे एक गांव से दूसरे गांव, एक
स्थान से दूसरे स्थान नंगे पैर पैदल विहार करते रहे, लगातार
और बस लगातार चिंतन, ध्यान करते हुए प्रत्येक समस्या का उन्होंने समाधान
खोज निकाला, वे केवलज्ञानी हुए और इसके बाद उन्होंने समाज को नई
दिशा दी, नया चिंतन दिया, जिसमें
सभी की समस्याओं के समाधान थे। इसी के लिए उन्होंने तीर्थ की स्थापना की।
और
फिर उन्होंने बताया कि किस प्रकार इन बीमारियों से बचा जा सकता है। पूरा विज्ञान
और मनोविज्ञान उन्होंने समझाया। जीव-अजीव आदि सभी तत्त्वों का ज्ञान दिया, उनके
भेद-प्रभेद बताए। महावीर ने जो कुछ और जितना कुछ बताया, वहां
तक पहुंचने में तो अभी आधुनिक विज्ञान को हजारों साल लग जाएंगे, फिर
भी वह पूरा नहीं समझ सकेगा। पानी और वनस्पति में जीव हैं, हजारों
की संख्या में जीव हैं, उनमें संवेदनाएं हैं; यह
बात सबसे पहले हमारे ही तीर्थंकरों ने बताई। यहां तक पहुंचने में ही आधुनिक
विज्ञान को कितना समय लग गया? इसी प्रकार हिंसा-अहिंसा का भेद और
परिणाम उन्होंने बताया। क्या पाप है, क्या पुण्य है और ये किस प्रकार
मनोवैज्ञानिक तरीके से काम करते हैं, परिणाम देते हैं, यह सब
उन्होंने बताया? राग-द्वेष, काम-क्रोध, मोह-मान-माया-लोभ
ये ही सब मनोविकारों, मानसिक बीमारियों की जड हैं, इन्हें
छोडो। यही सब सामाजिक विषमताओं की जड हैं, इन्हें
खत्म करो। यह सब उन्होंने बताया।
मन
के वैर-भाव को दूर करने के लिए ‘अहिंसा’, बुद्धि
की झडता, और आग्रह को मिटाने के लिए व बुद्धि की निर्मलता के
लिए ‘अनेकान्त’ तथा सामाजिक व राष्ट्रीय विषमता को
दूर करने के लिए ‘अपरिग्रह’ परमावश्यक तत्त्व हैं। इस प्रकार
अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह आधुनिक समाज के लिए प्रभु
महावीर की सबसे बडी देन है।
क्या
हमने कभी यह सोचा है कि हमारी सभी प्रकार की बीमारियों, विषमताओं, दुःखों, क्लेशों
को मिटाने वाले और इस दुःखमय, दुःखफलक और दुःखपरम्परक भव सागर से
पार ले जाकर हमें भी अक्षय सुख और अक्षय आनंद का रास्ता दिखाने वाले प्रभु महावीर
द्वारा स्थापित इस परम पवित्र तीर्थ की आज कैसी दशा है? हमारा
भविष्य क्या है? हम भव-सागर में भटकने के मार्ग पर हैं या इस भव सागर
से पार उतरने की दिशा में अपने कदम बढा रहे हैं? जिस
प्रकार से आज विज्ञान ने संसाधनों का विकास किया है, हम
उनका इस्तेमाल किस दिशा में जाने के लिए कर रहे हैं? हमारी
नई पीढी उन संसाधनों का उपयोग कर अधिक से अधिक विकार ग्रस्त हो रही है या सन्मार्ग
पर है? हमारे परिवारों में आज संस्कारों की क्या स्थिति है? क्या
हम भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक कर पा रहे हैं? हम
आज अधिकाधिक तनाव और अवसाद से ग्रस्त होते जा रहे हैं या शान्ति का अनुभव कर पा
रहे हैं?
प्रभु
महावीर की जयंती का यह अवसर हमें इस प्रकार के चिंतन के लिए प्रेरित करता है। अन्य
समाज-समुदाय के लोग आज हमें किस नजर से देखते हैं? जिस
प्रकार हमारे खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार में तेजी से बदलाव आ
रहा है, अत्याधुनिकता और तेज भागती जिन्दगी के नाम पर जिस
प्रकार की केबल-संस्कृति हमारे दिलो-दिमाग पर छा रही है; क्या
कभी आपकी कल्पना में यह तथ्य आया है कि जैनधर्म का ‘आगामी
कल’ कैसा होगा?
मैं
बहुत वेदना और विनम्रता के साथ आप लोगों से निवेदन कर रहा हूं कि आज इन यक्ष
प्रश्नों पर हमने चिंतन कर अपने संस्कारों को नहीं बचाया तो सिर्फ अगले पांच वर्ष
के भीतर इनके साथ जो जटिलताएं उत्पन्न हो जाएंगी, जुड
जाएंगी, वे बेहद तकलीफदेह साबित होंगी। हमें चाहिए कि अगले
दो-तीन वर्षों के दौरान जैन धर्म की मौलिकताओं को, उसके
वैज्ञानिक और तर्कसंगत स्वरूप को दुनिया के सामने लाएं, ताकि
उन संभावनाओं को परिपुष्ट किया जा सके, जिन्हें हम विश्व-शान्ति, विश्व-धर्म
और विश्व-बंधुत्व जैसे नामों से जानते हैं। इसके लिए जो भी अभिव्यक्ति के माध्यम
हमारे सामने हों, उनका हमें पूरे विवेक, पूरी
होंशियारी और भरपूर समझदारी के साथ उपयोग करने की कोशिश करनी चाहिए।
मुझे
लगता है आज महावीर के पुनर्जन्म की आवश्यकता है। महावीर का पुनर्जन्म तो हो नहीं
सकता, वे तो सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए। उनका पुनर्जन्म हमारे
दिलों में हो, इसकी आज आवश्यकता है। वे इस काल (आरे)
के सबसे बडे मनोवैज्ञानिक, समाज सुधारक और क्रान्तिकारी थे।
उनके सिद्धान्तों को आत्मसात् करने की आज जरूरत है। समाज में इस प्रकार की चेतना
जगाने और इसे फिर से आचार प्रधान समाज बनाने की आज जरूरत है, खासकर
युवा पीढी को तैयार करने की आज जरूरत है। इसके लिए कार्यक्रम और रणनीति आज तैयार
की जानी चाहिए। आशा है वक्त की जरूरत को, वक्त की नजाकत को हम समझ पाएंगे और
इसके अनुरूप हम अपने आचरण को प्रखर बना पाएंगे, तब
फिर हम गर्व से कह सकेंगे कि हम ‘जैन’ हैं।
Please write me : dr.madanmodi@gmail.com
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें