गुरुवार, 1 अगस्त 2013

एकता के नाम पर जिनाज्ञा की बलि


विधि-विधान के मतभेद चलेंगे, लेकिन सैद्धान्तिक मतभेद नहीं चलेंगे। एक सिद्धान्त बदलने के लिए कितना कुछ बदलना पडता है? कहते हैं कि वस्त्रधारी को चारित्र नहीं होता। यह है सिद्धान्त भेद। हम इसे नहीं मानते। वे तो यहां तक कहते हैं कि एक भी तंतु हो तब तक केवलज्ञान नहीं हो सकता। इस बात को सिद्ध करने के लिए स्त्री को मोक्ष नहीं, ऐसा लिखना पडा और श्री मल्लिनाथ स्वामी को मल्लनाथ कहना पडा। जहां सिद्धान्तों का भेद होता है, वहां सबकुछ बदलना पडता है। एकता के नाम पर भगवान की आज्ञा की बलि नहीं चढाई जा सकती। ऐतिहासिक सत्य को नकारा नहीं जा सकता। ऐसा किया तो फिर धर्म रहेगा ही कहां? अपनी सुविधा के हिसाब से सिद्धान्त बदलते रहो तो एक दिन धर्म पूरी तरह लुट जाएगा। एकता के अभाव में युवा पीढी में गलत संदेश जाने या युवाओं के धर्म से दूर जाने की बात गलत है, यह तो अपनी कमजोरी छुपाने का बहाना है। परिवार में बचपन से धर्म के संस्कारों का अभाव इसके लिए सर्वप्रथम एवं मुख्य रूप से जिम्मेदार है। दूसरा बडा कारण साधु-साध्वियों की कथनी-करनी में विद्रूपता, परिवार में अपने बुजुर्गों के आचार-विचार में कमी। मां-बाप मन्दिर जाते हैं, उपासरे में जाते हैं, धर्म की वाणी सुनकर उसे हृदयंगम नहीं करते, घर-पेढी में जाकर धर्म विरूद्ध आचरण करते हैं तो बच्चा-युवा क्या सीखेगा? बच्चे-युवाओं में संस्कारों का प्रथम बीजारोपण तो घर-परिवार में ही होता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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