पत्थर के पीछे तो दीवाने बने
हो। हीरा, माणिक,
पन्ना पत्थर ही हैं ना? खा जाओ तो प्राण ले ले,
ऐसे। उसके पीछे
नाचने-कूदने वालों को श्री वीतराग की मूर्ति देखकर दुःख हो, उसका कारण क्या है?
वह सोचो। भगवान के
जाने के बाद भगवान की वाणी को माने,
तो फिर मूर्ति को
मानने में क्या तकलीफ है? मुद्दा यह है कि ना कह दी,
उसे हां कैसे कहा जाए? हठीले और जिद्दी को समझाया जा
सकता है? आज तो दलील करते हैं कि ‘पत्थर में वीतरागता कहां से आई?’ तो जड जैसे अक्षरों में ज्ञान कहां से आया? भावना से ही चल सकता है तो खाने का क्या काम? भावना से ही पेट भरो न। अनाज वाले को कहो कि भावना से मानलो
कि पैसा मिल गया। वह कह देगा कि आप भी भावना से ही मानलो कि अनाज मिल गया। स्त्री
भी कहे कि भावना से मानलो कि चूल्हा जल गया,
अनाज पक गया और आपने
भी भावना से भोजन कर लिया। अब डकार लो न! लेकिन वहां तो सब चाहिए। वहां केवल भावना
से नहीं चलेगा और आत्म-कल्याण के साधनों को मूर्खतापूर्ण कुतर्को से उडा देने की
बात करें, यह अज्ञानता नहीं है तो क्या है? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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