आज धर्म की प्रीति में कमी हो
गई है। जहां धर्म की प्रीति में कमी हो,
वहां सहजतया धर्मी के
प्रति भी कमी होती है। धर्म के प्रति प्रीति ही धर्मी के प्रति प्रीति बढाती है।
इसीलिए आज साधर्मिक के दुःखों की बात करने के लिए बारम्बार संकेत करना पडता है कि
धर्म की प्रीति प्रकट हो और वृद्धि को प्राप्त हो, इसके लिए हमें अवश्य ही जोरदार प्रयत्न करना चाहिए। साधर्मिकों के प्रति दया
करने की बातें आज की जाती हैं, किन्तु साधर्मिकों के प्रति
तो भक्ति होनी चाहिए, दया नहीं। साधर्मिक तो भक्ति
के पात्र हैं, दया के पात्र नहीं। भक्तिपात्र के लिए दया की बात
करने वाले वास्तव में धर्म से दूर हैं,
क्योंकि उन्होंने धर्म
और भक्ति का मर्म वस्तुतः समझा ही नहीं है। धर्म के प्रति प्रीति वाले बनो और
बनाओ। अर्थात् धर्मवृत्ति से जो कार्य होने चाहिए वे शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार
होने ही चाहिए। आज तो दूसरे का सत्यानाश करके फल प्राप्त करने की कोशिश लोग कर रहे
हैं। बातें ऐसी करते हैं कि जिससे धर्म का बीज जलकर खाक हो जाए और सूखे हुए
धर्मवृक्ष से फलों को प्राप्त करने की अभिलाषा रखते हैं, इसका परिणाम क्या आता है? सच्चा साधर्मिक वात्सल्य धर्म की प्रीति के बिना हो ही नहीं सकता। जैन समाज का
गौरव यदि बढाना है, तो जैनियों को अपनी खोई
प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करनी चाहिए। धर्म का दायरा यदि बढाना है, तो साधर्मिक वात्सल्य को सही रूप में अपनाना होगा।’ -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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