स्वयं
को जैन कहने वाले भी अनेक मनुष्य आज देव, गुरु और धर्म के विषय में बहुत कुछ
कह रहे हैं, लिख रहे हैं। उनमें से अनेक तो अशिक्षित न होकर
विद्वान माने जाते हैं, पर तो भी मिथ्यात्व का प्रभाव
कितना भयानक होता है, यह उन लोगों के वचनों एवं लेखों से ज्ञात हो सकता है।
मिथ्यात्व में इतनी शक्ति है कि वह बुद्धिमान मनुष्य को भी मूर्खतापूर्ण विचारों
की ओर घसीट ले जाता है। अतः जिन्हें शास्त्रवेत्ता परमर्षियों के प्रति अगाध
श्रद्धा हो, उन्हें तो उन बिचारे पामरों की बातों पर ध्यान न देकर
उन पर दया करनी चाहिए। श्री जिनेश्वर भगवान के शासन में देव, गुरु
और धर्म का स्वरूप दोष रहित और गुण-युक्त होने के आधार पर निश्चित किया गया है।
ऐसे स्वरूप का वर्णन राग-द्वेष से सर्वथा रहित होकर सर्वज्ञ तारणहारों ने किया है।
यदि यह बात लक्ष्य में रखी जाए तो देव, गुरु और धर्म पर अश्रद्धा होने का
कोई कारण नहीं है। जिनके ध्यान में यह बात नहीं है, उन्हें
मिथ्यात्व आदि के कारण सत्य एवं उचित बात भी मिथ्या एवं अनुचित लगे तो कोई आश्चर्य
की बात नहीं है। लब्बोलुबाब यह कि जिन्हें मोक्ष के प्रति रुचि नहीं है तथा शुद्ध
जिन-कथित मोक्षमार्ग के प्रति श्रद्धा नहीं है; उनके
द्वारा कही हुई अथवा लिखी हुई तत्त्वों के स्वरूप संबंधी बातों की सामान्यतया हमें
उपेक्षा ही करनी चाहिए। परमोपकारी महापुरुषों ने देव, मनुष्य, तिर्यंच
और नरक इन चार गतियों के कारणों का उल्लेख किया है। उन कारणों को समझकर, उनमें
जो-जो दुर्गति के कारण बताए गए हैं, उनसे यथासंभव हमें दूर रहना चाहिए।
इसके साथ-साथ संसार के प्रति विरक्ति और शुद्ध मोक्षमार्ग अपनाने की अभिलाषा रखनी
चाहिए। -आचार्यश्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें