श्रावक प्रातःकाल उठकर
क्या-क्या करे? देव को याद करे, देवादि को नमस्कार करे। बाद में धर्म, कुल और स्वीकृत व्रतादि को याद करे, भावना भाए। प्रतिक्रमणादि करता हो तो करे। फिर अपने
गृहमंदिर में पूजा करे। शक्ति सम्पन्न श्रावक गृहमंदिर तो रखता है न? इसके बाद श्रावक संघ के मंदिर में जाए। वहां से गुरु के पास
जाए। घर तो बाद में जाता है न? गुरु उसे क्या कहते हैं? देव और गुरु के पास वह क्यों जाता है? संसार के राग से और संसार के संग से छूटने के लिए न? श्रावक के मन में क्या होता है? ‘इन देव और गुरु की उपासना करते-करते संसार के राग से और
संसार के संग से कब छूटूं’, ऐसा उसका मन होता है न? श्रावक तीर्थयात्रा करने जाता है तो किस भावना से जाता है? वहां जाने से संसार के राग और संग से जल्दी छुटकारा हो सकता
है, ऐसा उसका विचार होता है न? एक स्थान पर जाने से असर नहीं हुआ, दूसरे स्थान पर असर न हुआ तो उसे विचार होता है कि ‘सिद्धगिरिजी जाऊं! वहां का प्रभाव जोरदार माना जाता है।'
ऐसे विचार के साथ जो देव के पास जाता है,
गुरु के पास जाता है, तीर्थयात्रा पर जाता है,
उसका संसार के प्रति
राग कम न हो, ऐसा हो सकता है क्या? -आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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