विराग का अर्थ राग का सर्वथा
अभाव हो; ऐसा नहीं। राग का सर्वथा अभाव तो श्री वीतराग को
होता है। जीव जहां तक वीतराग नहीं बनता,
वहां तक जीव में राग
तो रहता ही है। परंतु जीव में राग होने पर भी वह विरागी हो सकता है। संसार के सुख
की अति आसक्ति बुरी लगे; यह आसक्ति वर्तमान में भी
दुःखदायक है और भविष्य में भी दुःखदायक है,
ऐसा लगे तो यह भी
विरागभाव है। राग इतना तो घटा न? संसार के सुख के अति राग के
प्रति तो अरुचि उत्पन्न हुई न? बाद में, विराग बढने पर ऐसा लगता है कि ‘संसार का सुख चाहे जैसा हो, परंतु वह सच्चा सुख नहीं ही है।’
इसमें भी राग तो घटा न? फिर ऐसा लगे कि ‘संसार का सुख, दुःख के योग से ही सुखरूप लगता है; सुखरूप लगने पर भी वह दुःख से सर्वथा मुक्त नहीं है और उसका
भोग पाप के बिना नहीं हो सकता, इसलिए यह भविष्य के दुःख का
भी कारण है; अतः संसार का सुख वस्तुतः भोगने लायक ही नहीं है।’ तो इसमें भी राग घटा या नहीं? जैसे-जैसे संसार के सुख का राग घटता जाता है, वैसे-वैसे विराग का भाव बढता जाता है। इस प्रकार संसार के सुख के प्रति राग का
घटना ही विराग का भाव है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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