शनिवार, 11 जुलाई 2015

आत्मा के रोगों के प्रति सावधानी



जब हमारे शरीर में साधारण-सी भी व्याधि उत्पन्न हो जाती है तो हम तुरंत चिकित्सक के पास उपचार हेतु भागे जाते हैं। यदि चिकित्सक कह दे कि व्याधि अत्यंत भयंकर है’, तो हम उसको बचाव का तरीका पूछेंगे। यदि चिकित्सक कहे कि रोग से बचना हो तो सभी प्रकार की स्वतंत्रता छोडनी होगी, आपको हमारे अधीन रहना पडेगा, क्योंकि रोग ने जडें जमा ली है। अब तक आप पांचों इन्द्रियों की इच्छापूर्ति करते रहे, खान-पान में इच्छानुसार चलते रहे; परन्तु अब आप ऐसी भयंकर व्याधि के फंदे में फंस गए हैं कि यदि आपको उससे बचना हो तो आपकी इच्छाओं को दूर रखना पडेगा।तो अपने शरीर के बचाव के लिए आप वह सब करते हैं। ऐसा क्यों? इसलिए कि आपने शरीर को अपना माना है। उसकी अमरता में आप अपनी अमरता मानते हैं इसलिए। शरीर आबाद रहा तो आप आबाद रहेंगे, यह मानते हैं इसलिए। परन्तु, ज्ञानियों ने बताया है कि शरीर को कितना भी संभालोगे तो भी यह एक दिन अवश्य नष्ट होने वाला है।

ऐसे नश्वर शरीर की व्याधि के लिए इतनी अधिक सावधानी रखना चाहते हो और आत्मा के रोगों के लिए तनिक भी चिन्ता अथवा सावधानी नहीं? आत्मा, जो हम हैं, जो शाश्वत है, जो स्थिर एवं अमर है, वह जिस-जिस तरह कलुषित होती जा रही है, रोगग्रस्त होती जा रही है, उसको सुधारने के लिए चिकित्सक की आवश्यकता होगी या नहीं? रोगी को चिकित्सक रोग-निवारणार्थ खान-पान का त्याग कराता है, तो फिर आत्मा के रोगों के लिए कुछ आगे बढना होगा अथवा नहीं? जैसी भयंकर व्याधि होगी, उसके उपचारार्थ वैसे प्रयास तो करने ही होंगे न? परन्तु वैसे प्रयास होते नहीं हैं।

आजकल विशुद्ध जीवन सिमटता जा रहा है, शुद्ध संस्कार लुप्त होते जा रहे हैं, यह हम सब जानते हैं, किसी से छिपा हुआ नहीं है। ऐसी स्थिति में तनिक अपने पूर्वजों, पूर्व पुरुषों की उत्तम भावनाओं का विचार करिए। जिन्हें आप अपने महापुरुष मानते हैं, वे सब अपने घोर शत्रुओं, अपकारियों के प्रति भी उपकार का भाव रखते थे। ऐसी भावनाओं का आज सर्वथा लोप होता जा रहा है, यह किसका प्रताप है? आप अच्छी तरह जानते हैं कि न तो आपके आचार शुद्ध हैं और न ही विचार शुद्ध हैं। जब तक विचार शुद्ध नहीं होंगे, तब तक विवेक नहीं आ सकता। विवेक प्राप्ति के बिना उपयोगी-अनुपयोगी का ज्ञान नहीं हो सकता और उसके अभाव में आन्तरिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त नहीं हो सकती। जब तक आन्तरिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त नहीं होगी, तब तक सच्चे सुख की, अक्षय सुख की, परम आनंद की, चिरशान्ति की प्राप्ति भी संभव नहीं है। यदि यह पाना है तो आत्मा के रोगों के प्रति सावधानी व उपचार जरूरी है, इसके लिए सुदेव, सुगुरु, सुधर्म का सान्निध्य परम आवश्यक है।-सूरिरामचन्द्र

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